जब भारत अंग्रेजों का गुलाम था, तब भी; आज सीमा पर देश के लिए तो कभी उत्तराखंड राज्य निर्माण में हुईं शहादतों ने हमेशा यहां की मिट्टी का मान बढ़ाया है। इसीलिए इस देवभूमि को वीरो की भी धरती कहते हैं। इस राज्य का इतिहास अमर बलिदानियों की गाथाओं से भरा पड़ा है। यह बात दीगर है कि आज यहां के स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों की स्मृतियां धुंधली पड़ चुकी हैं। नई पीढ़ी को या तो सैन्य बलिदानियों अथवा राज्य निर्माण में अपने प्राणों की आहुति देने वालों की ही यादें ताज़ा हैं, जबकि सबसे ऊंची मशाल की रोशनी स्वतंत्रता संग्राम में यहां के लोगों ने लहराई थी।
आज वर्तमान राज्य उत्तराखण्ड, जिस भौगोलिक क्षेत्रफल पर फैला हुआ है, इसका इतिहास ब्रिटिश शासन के उन्नीसवीं सदी के दूसरे दशक से लेकर भारत की आज़ादी तक का है। उत्तराखण्ड में ईस्ट इंडिया कंपनी का आगमन 1815 में हुआ। इससे पहले यहाँ नेपाली गोरखों का शासन था। यह भी माना जाता है कि गोरखा शासकों द्वारा इस इलाके के लोगों पर किये गये अत्याचारों को देखकर ही अंग्रेजों का ध्यान इस ओर गया। हालाँकि अंग्रेजों और नेपाली गुरखाओं के बीच लड़े गये गोरखा युद्ध के अन्य कारण भी थे।
अल्मोड़ा में 27 अप्रैल 1815 को गोरखा प्रतिनिधि बमशाह और लेफ्टिनेंट कर्नल गार्डनर के बीच हुई एक संधि के बाद नेपाली शासक ने इस क्षेत्र से हट जाने को स्वीकारा और इस क्षेत्र पर ईस्ट इण्डिया कंपनी का अधिकार हो गया। अंग्रेजों का इस क्षेत्र पर पूर्ण अधिकार 4 अप्रैल 1816 को सुगौली की सन्धि के बाद इस पूरे क्षेत्र पर हो गया और नेपाल की सीमा काली नदी घोषित हुई। अंग्रेजों ने पूरे इलाके को अपने शासन में न रख अप्रैल 1815 में ही गढ़वाल के पूर्वी हिस्से और कुमायूँ के क्षेत्र पर अपना अधिकार रखा और पश्चिमी हिस्सा सुदर्शन शाह, जो गोरखों के शासन से पहले गढ़वाल के राजा थे, को सौंप दिया जो अलकनंदा और मंदाकिनी नदियों के पश्चिम में पड़ता था।
इस प्रकार गढ़वाल दो हिस्सों में बंट गया, पूर्वी हिस्सा जो कुमाऊँ के साथ ब्रिटिश भारत का हिस्सा बन गया “ब्रिटिश गढ़वाल” कहलाया और पश्चिमी हिस्सा राजा सुदर्शन शाह के शासन में इसकी राजधानी टिहरी के नाम पर टिहरी गढ़वाल कहलाने लगा। टिहरी को राजा सुदर्शन शाह द्वारा नयी राजधानी बनाया गया था क्योंकि पुरानी राजधानी श्रीनगर अब ब्रिटिश गढ़वाल में आती थी। ब्रिटिश गढ़वाल को बाद में 1840 में यहाँ पौड़ी में असिस्टेंट-कमिशनर की नियुक्ति के बाद इस क्षेत्र को पौड़ी-गढ़वाल भी कहा जाने लगा, जबकि इससे पहले यह नैनीताल स्थित कुमाऊँ कमिश्नरी के अंतर्गत आता था। दूसरी ओर कुमाऊँ क्षेत्र के पुराने शासक चंद राजा को यह अधिकार नहीं मिला और यह ब्रिटिश भारत का हिस्सा बन गया और ब्रिटिश चीफ़-कमीशनशिप के अंतर्गत शासित होने लगा, जिसकी राजधानी (कमिश्नरी) नैनीताल में स्थित थी। भारत की आज़ादी तक टिहरी रजवाड़ा और ब्रिटिश शासन के अधीन रहा यह क्षेत्र आजादी के बाद उत्तर प्रदेश राज्य में मिला दिया गया।
1856 से 1884 तक पौड़ी-गढवाल और कुमाऊँ क्षेत्र हेनरी रैमजे के शासन में रहा तथा यह युग ब्रिटिश सत्ता के शक्तिशाली होने के काल के रूप में पहचाना गया। जो भी प्रभाव यहाँ भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के पड़े उन्हें कमिश्नर हेनरी रैमजे ने कठोरता से समाप्त कर दिया। इस दौरान कुमाऊँ के काली क्षेत्र (पूर्वी) में कालू मेहरा द्वारा गुप्त संगठन बनाये जाने और विद्रोह की तैयारियों के प्रमाण मिलते हैं और कालू मेहरा को उत्तराखण्ड का प्रथम स्वतंत्रता सेनानी माना जाता है। हालाँकि कुछ विद्वान यह मानते हैं कि कालू मेहरा और उसके साठी अवध के विद्रोहियों के सम्पर्क में अवश्य थे किन्तु वे अंग्रेज़ों और अवध के बागियों दोनों से गुप्त रूप से मिले रहकर जिसकी जीत हो उसके साथ जाने की मंशा रखते थे। यह भी तर्क दिया जाता है कि वे केवल आर्थिक लाभ के लिये दोनों पक्षों से सम्पर्क में थे और स्वतंत्रता से उनका कुछ लेना देना नहीं था।
कुमाऊँ कमिश्नरी के मैदानी क्षेत्र अवश्य इस दौरान ग़दर से प्रभावित रहे जो कमिश्नर रैमजे के लिये चिंता का विषय बने। जुलाई 1857 में बकरीद के मौके पर रामपुर में विद्रोह भड़कने और उससे नैनीताल के प्रभावित होने की आशंका से रैमजे ने ब्रिटिश औरतों और बच्चों को नैनीताल से हटा कर अल्मोड़ा भेज दिया था, हालाँकि रामपुर के नवाब अंग्रेज़ों के सहयोगी थे। नैनीताल पर कब्ज़ा करने का प्रथम प्रयास सितंबर 1857 में हुआ और 17 सितम्बर 1857 की एक घटना में मैदानी भाग में स्थित हल्द्वानी शहर पर विद्रोहियों ने कब्ज़ा भी कर लिया था जिसे बाद में अंग्रेजों ने वापस हासिल कर लिया। इस आक्रमण का नेतृत्व काला खान नामक विद्रोही कर रहा था।
इस प्रकार भारत के प्रथम स्वतंत्रता संघर्ष के बहुत उल्लेखनीय प्रभाव इस क्षेत्र में नहीं देखने को मिलते और कुल मिलाकर कमिश्नर रैमजे का शासनकाल शान्तिपूर्ण शासन का काल माना जाता है। इसी दौरान सरकार के अनुरूप समाचारों का प्रस्तुतीकरण करने के लिये 1868 में समय विनोद तथा 1871 में अल्मोड़ा अखबार की शुरूआत हुयी।
1905 में बंगाल के विभाजन के बाद अल्मोडा के नंदा देवी नामक स्थान पर विरोध सभा हुई। इसी वर्ष कांग्रेस के बनारस अधिवेशन में उत्तराखंड से हरगोविन्द पंत, मुकुन्दीलाल, गोविन्द बल्लभ पंत बदरी दत्त पाण्डे आदि युवक भी सम्मिलित हुए। 1906 में हरिराम त्रिपाठी ने वन्देमातरम् जिसका उच्चारण ही तब देशद्रोह माना जाता था, उसका कुमाऊँनी अनुवाद किया। भारतीय स्वतंत्रता आंन्देालन की एक इकाई के रूप में उत्तराखंड में स्वाधीनता संग्राम के दौरान 1913 के कांग्रेस अधिवेशन में उत्तराखंड के ज्यादा प्रतिनिधि सम्मिलित हुए। इसी वर्ष उत्तराखंड के अनुसूचित जातियों के उत्थान के लिए गठित टम्टा सुधारिणी सभा का रूपान्तरण एक व्यापक शिल्पकार महासभा के रूप में हुआ।
1916 के सितम्बर माह में हरगोविन्द पंत, गोविन्दबल्लभ पंत, बद्रीदत्त पाण्डे, इन्द्रलाल साह, मोहनसिंह दड़मवाल, चन्द्रलाल साह, प्रेमबल्लभ पाण्डे, भोलादत पाण्डे, लक्ष्मीदत्त शास्त्री आदि उत्साही युवकों के द्वारा कुमाऊँ परिषद की स्थापना की, जिसका मुख्य उद्देश्य तत्कालीन उत्तराखण्ड की सामाजिक तथा आर्थिक समस्याओं का समाधान खोजना था। 1926 तक इस संगठन ने उत्तराखण्ड में स्थानीय सामान्य सुधारों की दिशा के अतिरिक्त निश्चित राजनैतिक उद्देश्य के रूप में संगठनात्मक गतिविधियां संपादित कीं। 1923 तथा 1926 के प्रान्तीय काउन्सिल के चुनाव में गोविन्दबल्लभ पंत हरगोविन्द पंत मुकुन्दी लाल तथा बद्रीदत्त पाण्डे ने प्रतिपक्षियों को बुरी तरह पराजित किया।
1926 में कुमाऊँ परिषद का कांग्रेस में विलीनीकरण कर दिया गया। 1927 में साइमन कमीशन की घोषणा के तत्काल बाद इसके विरोध में स्वर उठने लगे और जब 1928 में कमीशन देश में पहुंचा तो इसके विरोध में 29 नवम्बर 1928 को जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में 16 व्यक्तियों की एक टोली ने विरोध किया जिस पर घुड़सवार पुलिस ने निर्ममता पूर्वक डंडो से प्रहार किया। जवाहरलाल नेहरू को बचाने के लिये गोविन्दबल्लभ पंत पर लाठी के प्रहार के शारीरिक दुष्परिणाम स्वरूप वे बहुत दिनों तक कमर सीधी न कर सके थे।
आधिकारिक सूत्रों के अनुसार मई 1938 में तत्कालीन ब्रिटिश शासन में गढ़वाल के श्रीनगर में आयोजित कांग्रेस के अधिवेशन में पंडित जवाहर लाल नेहरू ने इस पर्वतीय क्षेत्र के निवासियों को अपनी परिस्थितियों के अनुसार स्वयं निर्णय लेने तथा अपनी संस्कृति को समृद्ध करकने के आंदोलन का समर्थन किया। सन् 2000 में अपने गठन से पूर्व यह उत्तर प्रदेश का एक भाग था। इसका निर्माण 9 नवम्बर 2000 को कई वर्षों के आन्दोलन के पश्चात भारत गणराज्य के सत्ताईसवें राज्य के रूप में किया गया था। सन 2000 से 2006 तक यह उत्तरांचल के नाम से जाना जाता था। जनवरी 2007 में स्थानीय लोगों की भावनाओं को ध्यान में रखते हुए राज्य का आधिकारिक नाम बदलकर उत्तराखण्ड कर दिया गया। उत्तर प्रदेश विधानसभा में राज्य निर्माण का पहला प्रस्ताव 1990 में उत्तराखंड क्रांति दल के विधायक जसवंत सिंह बिष्ट द्वारा रखा गया। 1992 में उत्तराखंड क्रांति दल ने एक दस्तावेज जारी कर गैरसैण को उत्तराखंड की राजधानी घोषित किया, इस दस्तावेज को उत्तराखंड क्रांति दल का पहला ब्लू प्रिंट माना जाता है।
यह भी एक कड़वी सच्चाई है कि न्यायालयों में लंबित उत्तराखंड आंदोलन से जुड़े मामलों की पड़ताल की गई तो पता चला कि प्रदेश के शहीदों को बीते दशकों में न तो कभी न्याय मिला है और न ही अब इसकी कोई उम्मीद ही बची है। उत्तराखंड की सभी सरकारें, राज्य आंदोलनकारी परिषद् के सभी पदाधिकारी और आंदोलनकारियों के तमाम छोटे-बड़े मोर्चे समय-समय पर शहीद हुए आंदोलनकारियों को न्याय दिलाने की बातें करते रहे हैं लेकिन जिन मोर्चों पर न्याय की इस लड़ाई को असल में लड़ा जाना था, वहां आंदोलनकारियों की मजबूत पैरवी करने वाला कभी कोई रहा ही नहीं। नतीजा यह हुआ कि न्यायालयों से लगभग सभी मामले एक-एक कर समाप्त होते चले गए और दोषी भी बरी हो गए। बेहद गिने-चुने जो मामले आज भी न्यायालयों में लंबित हैं, उनमें भी यह उम्मीद अब न के बराबर ही बची है कि दोषियों को कभी सजा हो सकेगी।
हर उत्तराखंडी के जेहन में आज भी वर्ष 1994 के सितंबर महीने की पहली तारीख का वो मंजर ताजा है जब, पुलिस ने बर्बरता की सारी हदें पार करते हुए निहत्थे उत्तराखंडियों पर गोली चलाई थी, जिसमें सात राज्य आंदोलनकारी शहीद हो गए थे, जबकि कई लोग घायल हुए थे। उस कांड के साक्षी रहे लोगों का कहना है कि इस घटना को तत्कालीन कोतवाली प्रभारी डीके केन के निर्देश पर पुलिस कर्मियों ने अंजाम दिया था। एक सितंबर 1994 को उत्तराखंड राज्य की मांग को लेकर सुबह से हजारों की संख्या में लोग खटीमा की सड़कों पर आ गए थे। इस दौरान ऐतिहासिक रामलीला मैदान में जनसभा हुई, जिसमें बच्चे, बुजुर्ग, महिलाएं और बड़ी संख्या में पूर्व सैनिक शामिल थे। जनसभा के बाद दोपहर का समय रहा होगा, सभी लोग जुलूस की शक्ल में शांतिपूर्वक तरीके से मुख्य बाजारों से गुजर रहे थे। जब आंदोलनकारी कंजाबाग तिराहे से लौट रहे थे तभी पुलिस कर्मियों ने पहले पथराव किया, फिर पानी की बौछार करते हुए रबड़ की गोलियां चला दीं। उस समय भी जुलूस में शामिल आंदोलनकारी संयम बरतने की अपील करते रहे।
इसी बीच अचानक पुलिस ने बिना चेतावनी दिए अंधाधुंध फायरिंग शुरू कर दी, जिसके परिणामस्वरूप प्रताप सिंह मनोला, धर्मानंद भट्ट, भगवान सिंह सिरौला, गोपी चंद, रामपाल, परमजीत और सलीम शहीद हो गए और सैकड़ों लोग घायल हुए थे। उस घटना के करीब छह साल बाद राज्य आंदोलकारियों का सपना पूरा हुआ और उत्तर प्रदेश से अलग होकर नौ नवंबर 2000 को उत्तराखंड के रूप में नया राज्य अस्तित्व में आया। अलग राज्य का सपना आंदोलनकारियों की शहादत से पूरा तो हुआ लेकिन राज्य गठन से पूर्व देखे गए सपने धरे के धरे रह गए। राज्य में अराजकता, भ्रष्टाचार, बेरोजगारी, महंगाई, बेरोजगारी, पलायन, अफसरशाही, राजशाही, भूमि विवाद, प्राधिकरण जैसे मुद्दे आज भी पहले की ही तरह हावी हैं। और तो और उत्तराखंड सरकार उन शहीदों की फोटो तक संरक्षित नहीं कर सकी, जिनकी शहादत की बदौलत राज्य बना। आज भी खटीमा गोली कांड के शहीदों को श्रद्धांजलि रेलवे की भूमि पर बने एक चबूतरे में लिखे गए शहीदों के नाम पर दी जाती है।
आज से लगभग तीन साल पहले केंद्र सरकार ने लोकसभा में युद्ध में शहीद सैनिकों की विधवाओं का ब्योरा देश के सामने रखा। वह आंकड़ा 31 दिसंबर 2016 तक का था, जो जिला सैनिक कल्याण कार्यालयों में दर्ज हैं। आंकड़े चौकाने वाले रहे क्योंकि उत्तराखंड जैसे अपेक्षाकृत छोटे राज्य में इनकी संख्या 1416 दर्ज है, जो देश में दूसरे नंबर पर है। पहले नंबर पर उत्तर प्रदेश है, जहां शहीदों की 1566 विधवाएं जिला कार्यालयों में रजिस्टर्ड हैं। उत्तर प्रदेश की जनसंख्या 2014 के हिसाब से करीब 20 करोड़ बताई गई जबकि उत्तराखंड की महज एक करोड़। ऐसे में अगर देखा जाए तो देश के लिए जान देने वाले सबसे ज्यादा जवान उत्तराखंड से रहे हैं। इसी तरह सरकारी रिकॉर्ड के हिसाब से हरियाणा में शहीदों की 1243 विधवाएं हैं जबकि यहां की जनसंख्या उत्तर प्रदेश से करीब 10 गुनी कम यानी ढाई करोड़ बताई गई। पंजाब में विधवाओं की संख्या 1050, राजस्थान में 1267 है। बिहार में यह संख्या 354, हिमाचल प्रदेश में करीब 600, जम्मू-कश्मीर में 417 है। सबसे कम संख्या वाले राज्य हैं, अरुणाचल प्रदेश (1), गोवा (2), सिक्किम (2), त्रिपुरा (5)। पुडुचेरी और अंडमान निकोबार में शहीद जवान की एक भी विधवा नहीं है।
उत्तराखण्ड के अब तक के शहीद जवानों की संख्या पर आज भी अस्पषटता की स्थिति है। सैनिक कल्याण निदेशालय के रिकॉर्ड के अनुसार वर्ष 1947 से अब तक प्रदेश के 1637 सैन्य अधिकारियों और जवानों ने सर्वोच्च बलिदान दिया, जबकि रक्षा मंत्रालय उत्तराखंड के शहीदों की संख्या 2272 बताताहै। गढ़ी कैंट छावनी परिषद चीड़बाग में उत्तराखंड के पहले वार मेमोरियल ने जब आकार लेना शुरू किया, उसमें 1947 के बाद से अब तक शहीद हुए प्रदेश के सैन्य अधिकारियों और जवानों के नाम दर्ज होने थे। इसके लिए कैंट बोर्ड ने सैनिक कल्याण निदेशालय से शहीदों की लिस्ट मांगी। सूत्रों के मुताबिक निदेशालय ने कैंट बोर्ड को 1637 शहीदों की लिस्ट थमाई लेकिन कैंट बोर्ड के अधिकारियों को लिस्ट अधूरी प्रतीत हुई। इस पर रक्षा मंत्रालय से भी लिस्ट मंगवाई गई तो रक्षा मंत्रालय ने प्रदेश के शहीदों की संख्या 2272 बताते हुए पूरे नाम भेज दिए। उस वक्त तत्कालीन कैंट सीईओ जाकिर हुसैन ने कहा था कि रक्षा मंत्रालय ने कुल 2272 शहीदों की संख्या उपलब्ध करवाई है। कैंट बोर्ड उसी लिस्ट को सही मानता है।
उपनिदेशक सैनिक कल्याण निदेशालय जिलावार आंकड़ा प्राप्त कर अपने पास रखता है। सरकारी आंकड़े बताते हैं कि तीन साल पहले तक इस राज्य में शहीद सैनिकों की विधवाओं की तादाद एक हजार से ज्यादा बताई जाती रही है। यूं तो सबसे ज्यादा शहीदों की विधवाएं उत्तर प्रदेश में हैं जिनकी तादाद 1500 से ज्यादा है लेकिन आबादी के औसत से देखा जाए तो उत्तराखंड बहुत आगे है।
उत्तराखंड के शहीदों की सूची में ये नाम भी गर्व और सम्मान के साथ लिए जाते हैं – जैती (सालम) के शहीद, तिलाडी के आन्दोलकारी जो कारागार में शहीद हुए वीर, टिहरी के शहीद, तिलाडी के शहीद, कीर्तिनगर के शहीद, खुमाड़ (सल्ट) के शहीद, देघाट के शहीद, जेलों में शहीद संग्रामी। उनमें हैं – नरसिंह धानक (1886-1942), टीका सिंह कन्याल पुत्र जीत सिंह (1919-1942), गुन्दरू पुत्र सागरू (1890-1932), गुलाब सिंह ठाकुर (1910- टिहरी जेल में मृत्यु), ज्वाला सिंह पुत्र जमना सिंह (1880-1931), जमन सिंह पुत्र लच्छू (1880-1931), दिला पुत्र दलपति (1880- टिहरी जेल में मृत्यु), मदन सिंह (1875- टिहरी जेल में मृत्यु), लुदर सिंह पुत्र रणदीप (1890-1932), श्रीदेव सुमन पुत्र हरिराम बडोनी (1915-1944 टिहरी जेल में मृत्यु), अजीत सिंह पुत्र काशी सिंह (1904-1930), झूना सिंह पुत्र खडग सिंह (1912-1930), गौरू पुत्र सिनकया (1907-1930), नारायण सिंह पुत्र देबू सजवाण (1908-1930), भगीरथ पुत्र रूपराम (1904-1930), नागेन्द्र सकलानी पुत्र कृपा राम (1920-1948), मोलू राम भरदारी पुत्र लीला नन्द (1918-1948), सीमानन्द पुत्र टीकाराम (1913-1942), गंगादत्त पुत्र टीकाराम (1909-1942), चूड़ामणि पुत्र परमदेव (1886-1942), बहादुर सिंह पुत्र पदम सिंह (1890-1942), हरिकृष्ण (1942), हीरामणि (1942), रतन सिंह पुत्र दौलत सिंह, बोरारौ (1916), उदय सिंह पुत्र भवान सिंह, बोरारौ (1917), किशन सिंह पुत्र दान सिंह, बोरारौ (1906), बाग सिंह पुत्र खीम सिंह, बोरारौ (1905), दीवान सिंह पुत्र खीम सिंह, बोरारौ (1905), अमर सिंह पुत्र देव सिंह, बोरारौ (1918), त्रिलोक सिंह पांगती, चनौदा आश्रम, विशन सिंह, चनौदा, रामकृष्ण दुमका, हल्दूचौड़, दीवान सिंह, पहाड़कोटा (1943) आदि।