वेद विलास उनियाल : लोकसाहित्य लोक जीवन क दर्पण है। लोकसाहित्य में अमूमन काल क्रम नहीं होता। उत्तराखंड का लोकसाहित्य बहुत समृद्ध रहा है। गढ़वाली कुमाऊनी अत्यंत प्राचीन और समृद्ध भाषा है। अनेक लोकगीत, लोकगाथाएं मुहावरे, लोकोक्तियां लोककथाओं से संपन्न यह भाषा है। इसका अपना प्रभाव और व्याकरण है। इसे इस बात से समझा जा सकता है कि अकेले उत्तराखंडी तीन हजार मुहावरों पर पुष्कर सिंह कंडारी की किताब है। इस भाषा का सामाजिक प्रभाव रहा है कि उत्तराखंड की लोकभाषा में दो सौ साल पहले भी चिमनी जलाकर या चांदनी के प्रकाश में लोकनाटक खेले जाते रहे हैं।
साहित्य की हर विधा से लोकभाषा संपन्न रही है। इसलिए पहाड़ों के लोकसाहित्य में कविता नाटक, व्यंग्य लगभग हर विधा देखने को मिलती है। यहां लोक साहित्य में मंत्र-तंत्र, साधना साहित्य का भी महत्व रहा है। बौद्ध धर्म का विस्तार जिस स्वरूप में हुआ साहित्य पर उसका असर पडा। जहां तक धर्म-आध्यात्म की बात है तो नाथ संप्रदाय की भूमिका अपना महत्व रखती है। उत्तराखंड के लोकसाहित्य में प्राचीन समय में ढोल सागर का वर्णन मिलता है, जिसमें अपने आप में वृहद साहित्य हैं, जिसमें हजार से ज्यादा तालों का वर्णन मिलता है।
प्रख्यात चित्रकार मोलाराम के पूर्वज हरदास दिल्ली से गढ़ राजधानी श्रीनगर आए थे। औरंगजेब के कोप के कारण जब दाराशिकोह के बेटे सुलमान शिकोह ने राजा पृथ्वीपतिशाह के पास शरण ली थी तो उनके साथ चित्रकार हरदास भी आए थे। उन्हीं के वंशज मोलाराम तोमर गढ़ नरेश के दरबारी चित्रकार बने। वह हिंदी फारसी संस्कृत में विद्वान थे। अभिज्ञान शांकुतलम का हिंदी अनुवाद, श्रीनगर दुर्दशा ऋतु वर्णन के अलावा गढ़ राजवंश उन्हें श्रेष्ठ कृति है। उनके बाद गढ़वाली कुमाऊनी लोक साहित्य के लेखन में प्रगति हुई। खासकर अंग्रेजी शासन में इस पहाड़ी क्षेत्र में कई मेधावी रचनाकार सामने आए। जहां उनके साहित्य में एक तरफ लोकजीवन के सांस्कृतिक मांगलिक पक्ष, परंपरा, त्योहार, ऋतु श्रंगार यहां की कठनाइयां, अभाव, नारी संघर्ष प्राकृतिक विपदा विषय बने, वहीं आजादी की लड़ाई का स्वर नाद भी साहित्य में जागा।
हरिकृष्ण रतूड़ी, डा पीतांबर दत्त बड़थ्वाल, चंद्रकुंवर वर्तवाल, भवानी दत्त थपलियाल, मुकुंदी लाल, बेरिस्टर प्रख्यात लेखक रचनाकारों के साहित्य में लोकजीवन झलकता रहा। लोकभाषा के उत्थान में यह प्रयास और मुखर हुआ। गोविंद चातक गुणानंद जुयाल, शिवानंद नौटियाल, अबोध बंधु बहुगुणा, भजन सिंह, गुमानी कवि, तोता कृष्ण गैरोला, कन्हैया लाल डंडिरियाल, नरेंद्र सिंह नेगी, भगवती शरण निर्मोही, रतन सिंह जौनसारी, मोहन लाल बाबुलकर, धर्मानंद उनियाल, परशुराम थपलियाल से होता हुआ, जयपाल सिंह छिपाड़ा, नरेंद्र कठैत, पूरणचंद पथिक, दिनेश ध्यानी, ओमप्रकाश आदि तक आया।
लोकसाहित्य में लोकगाथाओं का महत्व बना रहा। पौराणिक आख्यान से लेकर भडों की वीर गाथा, प्रणय, यहां के जन आंदोलन, सैन्य परंपरा लोकगाथाओं में आई। शकुंतला-दुष्यंत, जीतू बगड्वाल, माधो सिंह मलेथा, तीलू रौतेली, चिपको प्रणेता गौरा देवी के प्रसंग लोकसाहित्य में विद्यमान रहे। यहां की लोकगाथाओं में जीतू बगड्वाल, कफ्फू चौहान, कालू भंडारी रणु रौत, कालू भंडारी, सरु कुमैण की वीरता की गाथा, नागरजा, सिदवा विदवा की पौराणिक गाथा, जीतू बगड्वाल, राजुला मालूशाही, फ्यूंली, नरु बिजूला , सरु कुमैण की प्रणय गाथा चर्चित हैं। इसके अलावा चैत में गाई जाने वाली चैती गाथा आवजियों के जरिए उच्च वर्ग को दान देने के लिए प्रेरित करने के लिए गाई जाती है। लोक साहित्य में आशा निराशा अपने सुख दुख भावनाएं झलकी और देव और प्रकृति की उपासना हुई। इनका भाव शुभ सत्य की विजय और लोकमंगल की भावना में निहित था। शिवप्रसाद डबराल , बद्रीदत्त पांडे. डा गोविंद चातक, राजेंद्र धस्माना, शिवानंद नौटियाल, डा पीतांबर दत्त बडथ्वाल, माधुरी बड्थ्वाल,भीष्म कुकरेती डाराजेंश्वर उनियाल, मदन डुकलान खुशहाल गणि आदि ने लोकसाहित्य में जो सृजन हुआ उसे संकलित और व्यवस्थित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
हिंदी साहित्य के कथा कविता में तो पहाड़ के कई बिम्ब हैं। पूरा एक संसार है। सुमित्रानंदन पंत, मनोहर श्याम जोशी, बटरोही , इला चंद जोशी, शिवानी, महादेवी वर्मा, शैलेश मटियानी, मोहन थपलियाल, शेखर जोशी, मंगलेश डबराल, लीलाधर जगूड़ी, चंद्र कुंवर बर्तवाल, विद्यासागर नौटियाल, हिमांशु जोशी, देवेंद्र मेवाडी, गंगा प्रसाद विमल, जितेंद्र ठाकुर, सुभाष पंत, नंद किशोर नौटियाल, शंभु प्रसाद बहुगुणा से होता हुआ आज के समय में संजय खाती, हरि मृदुल, वीरेंद्र बडथ्वाल आदि तक।
उत्तराखंड जन आंदोलन की भूमि रहा है। यहां जनगीत फिंजाओं में गूजे हैं। जन कवि गिर्दा जन चेतना के कवि रहे हैं। उत्तराखंड आंदोलन में उनके गीत लेकर लोग सड़कों पर आए हैं। चाहे हम नी ले सकों चाहे तुम नी सको ( चाहे मैं न लाऊं, चाहे तुम न ला सको लेकिन कोई न कोई उस अवसर को जरूर लाएगा) की अभिव्यक्ति में साहिर लुधियानवी के उन शब्दों का प्रतिबिंब था, जिसमें सुबह होने का इंतजार था। बेवसू जडता लाचारी टूटेगी और नई सुबह आएगी। गिर्दा के लोकसाहित्य में जन के लिए पुकार है। लोकगायक नरेंद्र सिंह नेगी की रचना है – बोला हे बंधु तुमते कनु उत्तराखंड चहेणु चा ( भाइओं बताओ आपको कैसा उत्तराखंड चाहिए)।
सत्तर के दशक में जब रैणी गांव में गोरा देवी और उनकी साथी पेंडों को बचाने के लिए पेडों से लिपट गई थी तब जनचेतना के लिए पुकार थी, चला दीदी चला भुली त्यों डाल्यूं बचौला ( छीटी बडी बहनों आओ इन पेडो को बचाने आगे आओ) यह गीत दरिया पर्वतों को पार करता हुआ पूरी दुनिया में पहुंचा और पर्यावरण का संदेश दे गया।पहाडों की व्यथा पर ही हीरा सिंह राणा का स्वर गूंजा, तेरु पहाड, मेरु पहाड। उत्तराखंड के आंदोलन में पहाडों में कवि चीमा का उद्घोष था ले मशाले चल पडे हैं लोग मेरे गांव के अब अधेरा जीत लेंगे लोग मेरे गांव के । अतुल शर्मा की वाणी थी होश में आओ वो सत्ता के सौदागर। बेशक शब्द हिंदी में हो लेकिन आत्मा पहाड की रही।
लोक साहित्य या गायन का एक स्वरूप बेडा गायन है। पर्वतीय क्षेत्र में लोक मनोरंजन , श्रंगारी भाव प्रणय गाथाओं को गाने वाले अपना जितना विशिष्ट महत्व रखते हैं उतना उन्हें सम्मान नहीं मिल पाया। लेकिन आशु कवि की तरह ढोलक पर उन्होंने उत्तराखंड की इस संस्कृति को प्रखर बनाए रखा। आज यह कला लोप होती जा रही है। हां इस भूमि पर देव अर्चना को लोक साहित्य में पर्याप्त जगह मिलना स्वाभाविक था। उत्तराखंड में जागर सुने और कहे गए हैं। देव, पौराणिक आख्यान शिव उमा उपासना, पांडव, नरसिंह भैरव निरंकार के साथ साथ नागराज के रूप में श्रीकृष्ण को पूजने की परंपरा यहां सदियों से है। जिन्हें जागरियों ने गाया है समाज उसका श्रोता बना। पहाडी वाद्य हुडका डोंर थाली बजाते हुए जिन जागरों को गाया गया जिनका ध्यान किया गया। वह हिमालयी क्षेत्र ही नहीं पूरे देश की लोकसंस्कृति की एक बेशकीमती धरोहर है।
केशव अनुरागी, चंद्र सिंह राही जैसे लोकसंगीत के सिद्ध लोगों के साथ साथ आज के समय में प्रीतम भर्तवाण बंसंती बिष्ट, रेशमा शाह, हेमा करासी, इस विधा को संजो रहे हैं।प्रीतम भर्तवाण तो जागर और ढोल सागर की कला को पश्चिम जगत में भी ले गए हैं। यूरोप इस कला को गहरा बोध आत्मसात कर रहा है। कहना होगा कि विलियम सेक्स जैसे कई यूरोप से इन पहाडों में आकर जागरी ही बन गए हैं। उत्तराखंड की लोककलाओं में जागरों अलोकिक स्वरूप लिए हुए हैं। गायन वार्ता नृत्य और वादन के साथ अनुष्ठान के रूप में जागर का स्वरूप देव या सिद्ध पुरुषों के आद्वान का रूप है। यहां तक टिहरी के कुछ खास क्षेत्रों में आछरियों के भी जागर लगाए जाते हैं। आछरियों को अविवाहित युवतियों की अतृत्प आत्माएं माना गया है। इनको लेकर भी अनेकजनश्रुतियां हैं। लोकमान्यताओं में टिहरी का खेट पर्वत और सेम क्षेत्र में इनका स्थान माना गया है। माना गया है कि संगीत की धुन, फूल श्रंगार और विविध रंग से आछरियां मुग्ध होती है।
इनका जागर की प्रक्रिया पवित्र भाव में है। जिसके स्वरूप में आस्था है लेकिन उसे लोककला का स्वरूप में मान लिया गया है। घंटाकर्ण, नागराजा, नरसिंह नगेला और निरंकारके साथ साथ देवी आराधना की परंपरा है। राजराजेश्वरी नंदा उमा जगदी आदि देवी के विभिन्न रूपों केजागर लगाए जाते हैं। शक्ति और देवी की यहां गायन और नृत्यमयी उपासना की जाती रही है। नागराजा यहां श्रीकृष्ण के अवतार के रूप में माने और पूजे जाते हैं। शायद ही कोई गांव हो जहां नागराजा का पूजन नहीं होता हो। खासकर कुमाऊं में गोलू देव यहां न्याय के देव हैं। उनका पूजन भी लोककला के रूप में भी अपना स्थान पाता है।
उत्तराखंड की भूमि में पाडवों का अपना गहरा संबंध रहा है। कहा जाता है कि पांडव अपना शरीर छोड़ने के लिए इसी धरा पर आए थे। देवों की तरह यहां पांडवो के जागर लगाए जाते हैं। पांडवों को लेकर यहां कई तरह की अनुश्रुतियां है। निश्चित तौर पर पांडव कथा यहां की लोक कला में छाए हुए हैं। परगट ह्वै जान परगट हवै जान पांच भाई पंडौऊ। पांडव गाथा यहां कई रूपों में गाई जाती है। पूरे प्रसंगों को यहां अलौकिक और दिव्य रूप में माना गया है।
उत्तराखंड में लोकगायन की समृद्ध परंपरा है। मानवीय जीवन का हर भाव इसमें निरुपित हुआ है। कुछ लोकगीत तो वाचन परंपरा में है। जो सदियों से एक पीढी से दूसरी पीढी तक गाए गए हैं। स्वभाविक है कि लोक गीतों में इस क्षेत्र का जीवन और अनुभूति झलकती रही। लोकगीतों में गंगा मां की तरह पूज्य है तो बद्री केदार आस्था के पुण्य धाम। प्रकृति के सुंदर स्वरूप की वंदना। चारों ओर प्रकृति का वैभव झलका तो लोकगायक और गीतकार नरेंद्र सिंह नेगी ने दुनिया को इस क्षेत्र में आने विचरण करने के लिए आमंत्रित किया, वह भी वसंत ऋतु में। मेरा डांड्यू कांठ्यू का मुल्क जैली वसंत ऋतु मा जेई। ( मेरे पहाड में आओगे तो वसंत ऋतु में आना)।
लोक गायक गोपाल बाबूगोस्वामी का गीत गूंजा उठ सुवा उजैलू ह्वैगो चम चम कू घाम ( प्रियतम उठो, सुबह की धूप आंगन में चमकने लगी है) गढ कुमाऊं में कदम कदम पर देवस्थल है। पौराणिक स्थल है। यहां चार धाम है नंदा के जागर भजन देवस्तूति उपासना लोकगीतों के रूप में भव्य और पवित्रता के साथ आई। मांगलिक शुभ पर्व और देव अनुष्ठान किसी आयोजन पर्व में देवो की उपासना के लिए उत्तराखंड अपने संमृद्ध पारंपरिक गीतों में शुभ की कामना करता रहा। श्रंगार पक्ष हो या प्रेण प्रणय यहां के लोकगीत अपने माधुर्य के साथ बने रहे। हाय तेरु रुमाल ( तेरा रुमाल बुहत सुंदर है और चेहरा गुलाबी रंग का है। फ्यूलाडी त्वे देखिकी औंदी यमन मा ( तुझे देखकर मुझे याद आता है जैसे तेरामेरा साथ पिछले जन्म में भी था ) पिछले नरुला बिजूला, जुन्यली रात कौ सुणोलू तेरी मेरी बात, हाय हाय रे मिजाजा, सरुली मेरु जिया लगीगे ( सरुली मेरा मन तेरे गढ कुमो में लग गया ) जैसे कई गीत पहाडों में रचे बसे हैं।
यहां के रीति रिवाज ऋतु परिवर्तन , चैत महीने की परंपराओ के गीत और खासकर होली की बैठी और खडी होली की परंपराओं में खासकर दुर्गा खमाज काफी आदि राग में आबद्ध गीत जिसकी बोली में बृज का असर दिखता है। उत्तराखंड की होरी गायन की अपनी सुंदर परंपरा है। ऋतुओ में हर ऋतु के लिए गीत है और बारह महीनो की बारहमासा गीत इस क्षेत्र में गाए जाते हैं। उत्तराखंड की भौगोलिक और सामाजिक परिस्थितियों में जो विपदा आई हैं उनसे भी गीत अछूते नहीं रहे। सतपुली में नयार में बाढ आने पर जब कई बसे बह गई तो उसे भी लोककवियों ने गीत पर ढाला, विश्व युद्ध में जब युवा यूरोप की धरती पर लडने गए तो पहाड को यह गीत रुलाने लगा सात समुंदर पार च जाणु ब्वे जाज मा जौलू कि ना ( मां मुझे सात समुद्र दूर युद्ध के लिए जाना है मैं जाऊं या नहीं ) इस गीत में वह अपने समूचे परिवेश को जीवन को यहां तक कि घर के आंगन के साथ बेलों की जोडी को भी याद करता है। पलायन पर ही चंद्र सिंह राही ने गाया, अपणी थाती मा तू लौटी की ऐजा ( अपनी माटी में तू लौट के आजा) और जब टिहरी बांध के लिए शहर को डुबाया जाने लगा तो नरेंद्र सिंह नेगी का गीत सबको झकझोर गया टिहरी डुबण लग्यूं च रे बेटा अबरी दा तू लंबी छ्टूटी लेकी ऐजा ( इस बार तू बेटा लंबी छुट्टी लेकर आजा टिहरी डूबने लगा है )। इन बडे लोक गायको के गीत ये पहाडों में मन से सुने और गुनगुनाए गए और लोगों ने इन गीतों में अपनी थाह तलाशी। वही नीति घाटी में दरबान सिंह और जौनसार में नंद लाल भारती सीमांत क्षेत्र के गीतों को रह रह कर सुनाते रहे हैं। सैन्य परंपरा के गीतों का जो बानगी उत्तराखंड में नजर आती है वह अद्भुत है। सैन्य पंरपरा का गौरव यहां के गीतों में आया। चाहे विछोह अपनापन मातृभूमि की रक्षा बलिदान, परिजनों से दूर रहना , प्रियतम की याद हर पहलू गीत का दर्शन बना। बोल बोराणी क्या तेरू नौ च, बांग्लादेश काला डांडा लडे लगी च, हम कुशल छंया माजी दगड्यो दगडी, कमला मैं जाण दे लडे मा, जैसे गीत यहां हर गाए गए। कन बजी मुरूली ऊंची ऊंची डांडियो मा ऐसा ही एक गीत है जिसमें एक विरहणी अपने प्रियतम को याद कर रही है और अपने इष्टदेव से कह रही है तुम उनके साथ रहना, मेरा मंगलसूत्र की रक्षा आप करना। बहुत करुणा से भरे गीत लिखे और गाए गए हैं। उत्तराखंड में खुदैड गीतों की अनुभूति यहां के परिवेश को महसूस कराती है। मायके की याद में बहुत भावपूर्ण गीतों की श्रंखला है। प्यारी घुघुती जैली, ना बास घुघुती चैत की, रात घनाघोर माजी रात घनाघोर, सौण का मैना, घुघुती घुरोण लगी मेरा मैत की, कभी सिला पाखो रिटू जैसे कई गीत यहां की नारियों के स्वर बने। उनकी आवाज बने। अपने एंकात में अपनी सहेलियों के साथ जंगलों में लकडी लेने जाते समय खेतों में काम करते समय यही गीत बरसते सावन में उसके एकांत में उसका साथ बने। मन के उदगार का वाहक बने। पहाडों के जीवन में जो सहजता रस अपनापन, उन्मुक्ता जीवटता रही वह गीतों में भी आई। जीत सिंह नेगी के लिखे गीत दर्जी दिदा मैते तू अंगणी सिले दे को आज भी सुना जाता है। रेखा धस्माना उनियाल का एक गीत नरेंद्र सिंह नेगी के साथ है, नयू नयू ब्यो च मीठी मीठी छुंइ लगोला। केशव अनुरागी के गीत को भी पहाडों में कैसे भुला जा सकता है हरू भरु घास ह्वेगे पली रौली। बहुत माधुर्य और पहाड की संवेदनांओं के साथ कन्हैया लाल डंडिरियाल का एक गीत है दादू मी पर्वतों कू वासी ( भाई मैं पहाडों का रहने वाला हूं ) और जब बेडू पाको बार मासा पर तो पूरा पहाड झूमने लगता है। न जाने क्या सम्मोहन है इस गीत में। कभी वीएल शाह के लिखे गीत पर मोहन उप्रेती ने ऐसी दुर्गा राग पर निबिद्ध ऐसी पारंपरिक धुन बनाई कि पहाडों में सहको थिरका देता है। उसमें उमंग भी है कसक भी है। सौंदर्य भी है पुकार भी है। यही मीना राणा का स्वर माधुर्य है, हमउत्तराखंडी छां। अनुराधा निराला, कल्पना चौहान, हेमा करासी, नेहा खंकरियाल माया गोविंद जैसी गायिकाओं ने पहाडों के इन लोकगीतों को मनभाव से गाया। पहाडों में वेदना के गीतों में न्यूली गाई जाती है। यह विरही पुकार है। पहाडों में विचरती एक न्यूली पक्षी करुण पुकार करती है । उसी के नाम पर न्यूली नाम दिया। कोई युवती गा उठती है, पार डांडा। इसी तरह वियोग और वैराग्य में गोपीचंद की वाणी भी लोक भाषा यहां गाई जाती रही है। उस भाव को हर्षपुरी के लिखे अकुलो मा माया करी गीत से समझा जा सकता है। नागपंथ का गायन भी लोगों को चर -अचर आत्मा परमात्मा के दर्शन का बोध अपनी तरह कराता रहा।
उत्तराखंड में पक्षी घुघुती भौरा, काफू कागा, लोकगीतों में आते गए। घुघुती ना बासा तो आम की डांली मा ( घुघुती तू इन आमों के वृक्षों में बैठकर मत गाओ) उडादूं भंवरा तौं उचीं डांडियों मां ( वाचस्पति ड्यूडी का लिखा गीत है कि इन ऊंचे पहाडों में भंवरा उडता है ) ना काफू बसदू यख न घुघूती घूर घूर ( ससुराल में कोई नई विवाहिता अपने मायके को याद कर गा रही है कि यहां तो न काफू बलता है न घूघूती की घूर घूर आवाज सुनाई देती है। ) मेरी प्यारी घूघूती जैली,। कागा यहां भी शुभ है और संदेश लाने वाला है। उड जा कागा डांडियों का पार जैसे गीत मन को भाते हैं। उत्तराखंड की जमीं पर शासन के अत्याचार अन्याय पर भी लोकगीत बने पंवाडों में भी शूरवीरों के बलिदान और साहस पर गीत बने। पांच भाई कठैत के समय उनकी विसंगतियों और दमन की नीति के खिलाफ गजै सिंह जैसे कर्तव्यनिष्ठ राज्य अधिकारी के लिए लोकगीत बना रणिहाट नी जाणू गजे सिंह छी दारू नि पैण गजेसिंह। बडा बाबू कू बेटा गजैसिंह मणिजा बोल्यूं गजेसिंह।
इन गीतों से गुजरते हुए यह संवाद होने लगता है कि क्या इन्हें ही हम लोकगीत कहेंगे या लोकगीत कुछ अलग स्वरूप में होते हैं जैसे जागर, पावंडा, चैती झुमैलो, चौफला, बाजुबंद, थड्या, छपेली झोड़ा, चौमासा, हुडकी बोल, फूलदेहीआदि का विस्तार कुछ ज्यादा व्यापक है। यह चर्चा एक अलग अध्याय में जाती है। लेकिन इन गीतों का जिक्र जिस तरह हुआ है उसमें वह आमतौर पर लोकगीतों के तौर पर ही निरूपित किए जाते हैं। हां उत्तराखंड के लोकगीतों को और गहराई से समझना जानने की उत्कंठा हमें कबोतरी देवी और वचनी देही जैसे सिद्ध साधकों के समीप ले जाती है। जिनका गायन आत्मा को छूने वाला है। उत्तराखड के लोकजीवन के असली तत्व उसमें हैं।