उत्तराखंड में प्रवासियों की बढ़ती संख्या से कुछ समय के लिए कोरोना आपदा गंभीर जरूर हुई है, लेकिन इस सवाल को सोचकर कम ही लोग उदास हो रहे होंगे, कि ये प्रवासी कल को हालात ठीक होने पर फिर अपनी-अपनी रोजी की तलाश में राज्य से बाहर चले जाएंगे। इसलिए आज वो अपनी मिट्टी के पास हैं तो उन्हे प्रदेशवासियों का भरपूर प्यार मिलना चाहिए। उनकी वजह से कोरोना दर भले उछल गई हो, उन्होंने कोई जानबूझकर ऐसा थोड़े किया है, या वैसा क्यों चाहेंगे कि खुद कोरोना संक्रमित हो जाएं या अपने प्रदेश के, अपनी मिट्टी, घर-परिवार, समाज के लोगों को त्रस्त करें। वे बाहर तो पहले से ही बेठिकाना थे, देवभूमि लौटकर भी हफ्तों का वक्त क्वारंटीन में काट रहे हैं। उनके ऐसे हालात पर हर किसी के भीतर उनके प्रति गहरी सहानुभूति होनी चाहिए।
उत्तराखंड के सुमाड़ी गांव के प्रधान सत्यदेव बहुगुणा कहते हैं कि मेरे गांव में अधिकांश लोग पढ़े-लिखे हैं। वे छोटे-मोटे काम नहीं करेंगे। वे फिर शहरों का रुख करेंगे और एक बार फिर वहां अपनी किस्मत आजमाएंगे। उत्तराखंड में जिन लोगों के पास कुछ साधन हैं, वे गांवों में ही अवसर तलाशना चाहते हैं लेकिन दूसरों लोग लंबे समय तक गांवों में नहीं रह सकते हैं और स्थिति के सामान्य होते ही वे फिर शहरों का रुख कर सकते हैं। यद्यपि सरकार उन्हे रोजी देने की दिशा में कोशिश जारी रखे हुए है लेकिन अतीत के राजनीतिक वायदे याद आते ही चिंता बढ़ जाती है।
प्रवासियों का दर्द जानिए कि घर वापस आए कई लोग अपने ही गांव में अब बोझ माने जा रहे है। अभी कुछ दिन पहले ही देहरादून से अपने पहाड़ के गांव लौटे एक परिवार को अपने गांव वालों के भारी विरोध का सामना करना पड़ा। इस विपदा में औरों को छोड़िए, खुद उनके परिवार के, और उनके ही चुने ग्राम प्रधान आदि भी साथ खड़े नहीं हो पा रहे हैं। संक्रमण का खतरा जरूर है लेकिन इसका गुस्सा उन पर उतारने की बजाए उनके साथ अच्छा बर्ताव करते हुए भी तो व्यवस्था बनाई जा सकती है। सच है कि जब खुद की जान पर बन आती है, आदमी विवेकशून्य हो जाता है लेकिन प्रवासियों के साथ बुरा बर्ताव तो कत्तई नहीं होना चाहिए।