विगत लोकसभा चुनाव में भाजपा जीभर जश्न मना चुकी है लेकिन अब चूंकि सीएम अरविन्द केजरीवाल ने अपने काम का तरीक़ा बदल दिया है, पिछले एक साल से आम आदमी पार्टी अपने पिछले चुनाव के 70 वायदों निभाने का रिपोर्ट कार्ड लेकर दिल्ली की जनता के पास पहुंच रही है, इसलिए एक तो चुनाव की घोषणा होने के बाद से भाजपा और कांग्रेस में पहले जैसा उत्साह और जोश नहीं दिख रहा है, इसलिए ‘आप’ दावा कर रही है कि वह इस बार नया रिकॉर्ड बनाने जा रही है। डिप्टी सीएम मनीष सिसोदिया अपनी सरकार की सफलता में मोहल्ला क्लीनिक, अच्छी शिक्षा, सस्ती बिजली, हर मोहल्ले में अच्छी गलियां और सड़कें बनवाने जैसी बातें गिना रहे हैं। वह कहते हैं कि दिल्ली में स्वास्थ्य, बिजली, पानी और शिक्षा का स्तर बेहतर हुआ है जिससे आम आदमी को लाभ पहुंच रहा है और यही वजह है कि अब दिल्ली की जनता अच्छा काम करने वाली सरकार चाहती है, सिर्फ गाल बजाने से काम नहीं चलने वाला, दिल्ली की जनता पूरी तरह प्रबुद्ध है।
यद्यपि नागरिकता संशोधन क़ानून, जेएनयू हिंसा जैसे मुद्दों पर ‘आप’ का लगभग तटस्थ रहना उसको कुछ घाटा भी पहुंचा सकता है, यह हकीकत भी है कि ‘आप’ को अपने काम के बूते सत्ता में एक बार फिर वापसी की उम्मीद है। दूसरे उसने पिछले पांच वर्षों में भावनात्मक मुद्दे भड़काने वाली कोई हरकत नहीं की है, न वह ऐसा जनता को मूर्ख बनाने वाली ऐसी कोई हरकत करके राजनीतिक लाभ उठाने के पक्ष में है। इस बीच कांग्रेस और भाजपा, सत्ता हासिल करने की चाहे जितनी बातें करें, वे सिर्फ अपना वोटबैंक वापस पाने के जुगाड़ में जुटी हैं। सबसे बड़ी एक बात भाजपा के लिए बड़े घाटे की दिख रही है, वह ये कि दिल्ली के तीनों केंद्रीय विश्वविद्यालयों, जेएनयू, डीयू, और जामिया में उसके विरोध की आग भड़की हुई है। जामिया और जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के छात्रों को हिंसा के साथ पुलिसिया दोहरेपन का भी सामना करना पड़ा है, जिसका फायदा उठाने से ‘आप’ शायद ही चूके।
भाजपा उम्मीद लगाकर चल रही थी कि दिल्ली की जनता लोकसभा चुनाव की तरह अपना भरोसा उस पर बरकरार रखेगी लेकिन पिछले छह महीने में हालात कुछ के कुछ हो चुके हैं। उसके हौसलों में उस वक्त जैसा दम नजर नहीं आ रहा है। झारखंड और महाराष्ट्र के चुनाव नतीजे इसके सबसे जीवंत सुबूत हैं। ऐसे में सवाल ये महत्वपूर्ण हो जाता है कि अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी फिर से 67 सीटें जीतने का जलवा दिखा सकती है। दावा तो किया जा रहा है कि वह नया रिकार्ड बनाएगी। इसकी एक वजह यह बताई जा रही है कि 2014 में भी दिल्ली में भाजपा ने सभी लोकसभा सीटें जीती थीं लेकिन 2015 में जब दिल्ली विधानसभा चुनाव हुआ तो उसके सिर्फ तीन प्रत्याशी विधायक बने और कांग्रेस का तो खाता भी नहीं खुला।
‘आप’ सरकार ने धीरे-धीरे ही सही, लेकिन काम की रफ़्तार पकड़ी और काम करने का तरीका भी बदला। उसके कामकाज में केंद्र सरकार तरह तरह के पंगे भी लगाती रही, वह क़रीब चार साल तक चीफ़ सेकेट्ररी और उपराज्यपाल प्रकरण को झेलती रही और केंद्र सरकार के विज्ञापनों से आघाया हुआ मीडिया भी उसकी गलतियां गिनाने में व्यस्त रहा। ‘आप’ अब सजग हो चुकी है। राज्यसभा सांसद संजय सिंह जेएनयू छात्रों पर हुए हमले के बाद एम्स में घायलों से मिलकर उनका हाल-चाल ले चुके हैं। जहां तक दिल्ली में रहने वाले पूर्वांचल के वोटरों की बात है, वह कांग्रेस और भाजपा में बटने तय हैं। इससे उम्मीद की जा सकती है कि इस तरह की वजहों से कांग्रेस-भाजपा की स्थिति दिल्ली विधानसभा के पिछले चुनाव के मुकाबले थोड़ी बेहतर हो सकती है।
यद्यपि एक सच ये भी है कि यह पूर्वांचली वोटबैंक आज बहुत हद तक आम आदमी पार्टी अपने काम के बूते हासिल कर चुकी है। अन्य पार्टियों की, कोई काम नहीं, सिर्फ लोकलुभावन वायदों पर विश्वास करना अब उसके लिए भी मुश्किल दिखता है। जहां तक दलित-मुस्लिम समीकरण की बात है, इस पर भी ‘झूठे वायदे बनाम काम’ का तर्क भारी पड़ता दिख रहा है। गौरतलब है कि कांग्रेस को अपनी अंदरूनी गुटबाजी का भी नुकसान होता रहा है। उल्लेखनीय यह भी है कि चुनाव की घोषणा कब की हो चुकी है और भाजपा अभी तक अपना मुख्यमंत्री पद का दावेदार तक घोषित नहीं कर पाई है। यही सब वजहें हैं कि वह पिछले 21 साल से दिल्ली की सत्ता से दूर है मगर इस बार वह केंद्र में सत्तासीन होने के बल पर सियासी वनवास ख़त्म करने पर एड़ी चोटी का ज़ोर लगा रही है।