इस बात के पर्याप्त उदाहरणों से पता चलता है कि न्यायपालिका दबाव में काम कर रही है और अपनी स्वतंत्र पहचान खोती जा रही है। इसकी जड़ें कांग्रेस शासन में इंदिरा गांधी के जमाने से मजबूत होती आ रही हैं। हाल ही में भारत के चीफ़ जस्टिस एसए बोबडे सार्वजनिक तौर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनके नेतृत्व की तारीफ़ करने से ख़ुद को रोक नहीं पाए। लोकतंत्र के चार स्तंभों में से एक न्यायपालिका में इन दिनों नेताओं का प्रभाव बढ़ता दिख रहा है। जस्टिस गोगोई के राज्यसभा के लिए मनोनीत होने की ख़बर के बाद जस्टिस लोकुर ने वाजिब ही सवाल पूछा है कि जब आख़िरी क़िला ही ढह जाए तो फिर क्या होगा। इसका जवाब किसी के पास नहीं।
राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने जब भारत के पूर्व चीफ़ जस्टिस रंजन गोगोई का नाम राज्यसभा के लिए मनोनीत किया तो इस पर किसी को कोई बहुत अचरज नहीं हुआ। आम तौर पर इस तरह के फ़ैसले पर लोगों की भौंहे तन जाती है क्योंकि जजों से कुछ अलिखित सिद्धांतों के पालन की उम्मीद की जाती है। पूर्व चीफ़ जस्टिस रंजन गोगोई अपने कार्यकाल के आख़िरी दौर में कुछ ऐसे फ़ैसलों में शामिल रहे हैं, जो सरकार चाहती थी। वह उस बेंच की अध्यक्षता कर रहे थे जिसने अयोध्या के विवादित भूमि जैसे संवेदनशील मुद्दों पर फ़ैसला दिया था। बेंच ने विवादित ज़मीन जिस पर कभी बाबरी मस्जिद हुआ करती थी, उसे हिंदू पक्ष को राम मंदिर बनाने के लिए देने के फ़ैसला सुनाया था। यह एक ऐसा वादा था जो बीजेपी ने अपने घोषणापत्र में लिखा था। ये मामला भी पुराना था। सत्तारूढ़ पार्टी से जुड़े दक्षिणपंथी समूह 6 दिसंबर, 1992 को बाबरी मस्जिद गिराने के बाद से ही वहां मंदिर बनाने की बात करने लगे थे।
ऐसा ही एक मामला रफ़ाल सौदे का भी था जिसमें कोर्ट ने ज़्यादा कीमत पर रफ़ाल सौदे के आरोप की जांच को ज़रूरी नहीं बताया था। इससे कई सवाल जिनके जवाब मिलने थे, वो नहीं मिले। कोर्ट को सरकार से इन सवालों के जवाब पूछने चाहिए थे। मोदी सरकार के लिए यह बड़ी राहत की बात थी क्योंकि वो इस सौदे को लेकर कोई पारदर्शी रुख़ नहीं अपनाना चाहती थी। याचिकाकर्ताओं ने इस मामले में बड़े स्तर पर साज़िश रचकर राष्ट्रीय संपत्ति को नुकसान पहुंचाने का आरोप लगाया था। आरोप लगाया गया था कि रफ़ाल बनाने वाली कंपनी दासौ पर अनिल अंबानी की कंपनी का पक्ष लेने के लिए दबाव बनाया गया था। कोर्ट ने इस संबंध में दायर पुनर्विचार याचिका को ख़ारिज कर दिया था। यह पुनर्विचार याचिका अरुण शौरी और यशवंत सिन्हा ने दायर की थी।
इसके अलावा जो एक अहम फैसला रंजन गोगोई के चीफ़ जस्टिस रहते हुए लिया गया, वो था असम में एनआरसी लागू करने का। लंबे समय से बीजेपी के घोषणापत्र में यह एजेंडा भी शामिल रहा है। असम में हुए एनआरसी में 19 लाख लोग सूची से बाहर रह गए और जिन्हें भारतीय नागरिक नहीं माना गया। ये भावनात्मक रूप से ठेस पहुंचाने वाला था क्योंकि बहुत सारे लोग उनमें से ऐसे थे जो जन्म से इस देश में रह रहे हैं। देश के लिए करगिल की लड़ाई लड़ने वाला एक जवान भी इस सूची में शामिल है। उन्होंने एनआरसी की मॉनिटरिंग करने वाली बेंच का भी नेतृत्व किया जो वाकई में सरकार का काम होना चाहिए था। इससे नरेंद्र मोदी की सरकार को राष्ट्रव्यापी एनआरसी की योजना बनाने में मदद मिली। रंजन गोगोई एनआरसी के मज़बूत समर्थक रहे हैं। राज्यसभा के सदस्य के तौर पर वो अब कोशिश करेंगे कि सरकार इसे आसानी से पूरे देश में लागू कर सके। हालांकि असम में एनआरसी की प्रक्रिया में कई परेशानियां रही हैं।
रंजन गोगोई के रिटायर होने के महज चार महीने बाद राष्ट्रपति कोविंद ने उन्हें राज्यसभा के लिए मनोनीत करने का फ़ैसला लिया है। राज्यसभा में मनोनीत होने वाले सदस्यों की संख्या दस हैं। सुप्रीम कोर्ट के चीफ़ जस्टिस के तौर पर गोगोई का कार्यकाल उस समय बदनामी के घेरे में आ गया जब सुप्रीम कोर्ट की एक महिला कर्मचारी ने उन पर यौन उत्पीड़न करने की कोशिश का आरोप लगाया था। महिला कर्मचारी की तरफ से शिकायत करने से पहले उनकी नौकरी से निकाल दिया गया था और उनके पति और रिश्तेदारों को भी अपनी नौकरी से हाथ धोना पड़ा था।
जब शिकायकर्ता महिला अपनी शिकायतों को लेकर सार्वजनिक तौर पर आईं और सुप्रीम कोर्ट के तमाम जजों को खत लिखकर यौन उत्पीड़न के बारे में विस्तार से बताया तब गोगोई ने आनन-फानन में छुट्टी के दिन इस मामले की सुनवाई रखी और सभी नियमों को ताक पर रखकर खुद इस मामले की सुनवाई शुरू की। जब उनके इस क़दम की चारों तरफ आलोचना होने लगी तो उन्होंने मामले की सुनवाई के लिए जस्टिस एसए बोबडे के नेतृत्व में एक पैनल का गठन किया। महिला ने आरोप लगाया था कि उनकी बात नहीं सुनी जा रही है और उनके साथ न्याय नहीं हो रहा है। जस्टिस बोबडे ने रंजन गोगोई को इस मामले में क्लीन चिट दे दिया और सुनवाई को सार्वजनिक तौर पर करने से यह कहते हुए मना कर दिया कि इसकी ज़रूरत नहीं है. जिस तरह से इस मामले को निपटाया गया उसे लेकर खूब आलोचना हुई। जो आंतरिक जांच कमेटी आरोपों की जांच के लिए बनाई गई थी, उसकी रिपोर्ट की कॉपी शिकायकर्ता को कभी नहीं दी गई। इस पूरी प्रक्रिया में पारदर्शिता और न्याय का बुनियादी सिद्धांत नहीं अपनाया गया। हां, शिकायतकर्ता को फिर से सुप्रीम कोर्ट की नौकरी पर वापस बुला लिया गया। उनके पति और रिश्तेदार की भी नौकरी वापस मिल गई।
जस्टिस गोगोई के पूर्व सहकर्मी जस्टिस मदन लोकुर का कहना है कि वो जस्टिस गोगोई को कुछ सम्मानजनक पद मिलने की उम्मीद तो कर रहे थे लेकिन आश्चर्य है कि यह इतनी जल्दी मिल गया। उनका मानना है कि राज्यसभा के लिए गोगोई का मनोनीत होना न्यायपालिका की आज़ादी, निष्पक्षता और विश्वसनीयता को नए सिरे से परिभाषित करेगा। बीजेपी जब 2014 में सत्ता में आई थी तब उसके एक साल पहले अब के केंद्रीय मंत्री पीयूष गोयल ने ट्वीट किया था, “जजों को रिटायरमेंट के बाद मिलने वाले फायदे को ध्यान में रखते हुए बहुत कुछ किया जा रहा है। रिटायरमेंट के बाद मिलने वाले फायदे न्यायिक फ़ैसलों को प्रभावित करते हैं। सुप्रीम कोर्ट में गोगोई के सहयोगी रहे जस्टिस लोकुर और कुरियन जोसेफ़ ने पहले ही यह घोषणा कर दी थी कि वे रिटायरमेंट के बाद कोई भी सरकारी पद नहीं लेंगे. ऐसा करके उन्होंने एक शानदार परंपरा को निभाया है।
जस्टिस रंगनाथ मिश्रा इससे पहले ऐसे चीफ जस्टिस हुए जो राज्यसभा के सदस्य बने थे लेकिन उन्हें मनोनीत नहीं किया गया था। वे कांग्रेस की टिकट पर 1998 में राज्यसभा गए थे। फिर भी इसे एक विवादित फ़ैसला ही माना गया क्योंकि इसे राजनीतिक फ़ायदा उठाने के तौर पर देखा गया। इंदिरा गांधी की हत्या के बाद हुए नरसंहार में बड़े कांग्रेसी नेताओं को बचाने के इनाम के तौर पर इसे देखा गया। उन्होंने दंगे की जांच के लिए बनाई गई जस्टिस रंगनाथ मिश्रा आयोग का नेतृत्व किया था। अगस्त 2014 में पी सदाशिवम को चीफ जस्टिस के पद से रिटायर होने के बाद केरल का राज्यपाल नियुक्त किया गया था। इस समय तक बीजेपी सत्ता में आ गई थी। कांग्रेस ने इसकी यह कहते हुए आलोचना की थी कि अमित शाह को तुलसीराम प्रजापति के कथित फेक इनकाउंटर मामले में खुली छूट मिलने का इनाम दिया गया है।
तुलसीराम प्रजापति सोहराबुद्दीन शेख़ का सहयोगी था जो कथित फेक इनकाउंटर में मारा गया था। सोहराबुद्दीन की बीवी कौसर बी भी इस मामले में मारी गई थी। जस्टिस सदाशिवम ने इन मामलों में अमित शाह पर लगे आरोपों को पूरी तरह से ख़ारिज कर दिया था। भारत के एक और पूर्व चीफ जस्टिस जिनका नाम इस तरह के विवादों में रहा है, वो हैं जस्टिस केजी बालाकृष्णन। वह केरल के मुख्यमंत्री के करुणाकरण के नज़दीकी माने जाते थे। उन्होंने केरल हाई कोर्ट के जज के तौर पर बालाकृष्णन की दावेदारी का समर्थन किया था। वह दलित समुदाय से आते थे, इसके बावजूद कई दलित वकीलों ने राष्ट्रपति को याचिका भेज यह कहा था कि वे हाई कोर्ट के जज बनने की अनिवार्य शर्तों पर खरे नहीं उतरते हैं। जब वो मद्रास हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस थे, तब उन पर कई फ़ैसलों में अपने परिवार के लोगों के हित साधने के आरोप लगे थे। ग़ैर-सरकारी संगठन कॉमन कॉज ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका डालकर आरोप लगाया था कि जस्टिस बालाकृष्णन ने आय से अधिक संपत्ति इकट्ठा कर रखी है। एटॉर्नी जनरल मुकुल रहतोगी ने कहा था कि अगर उनके ख़िलाफ़ जांच बैठे तो बहुत कुछ सारे राज़ खुलेंगे। वरिष्ठ वकील प्रशांत भूषण ने कोर्ट में बालाकृष्णन के बच्चों और भाइयों के नाम पर 22 से अधिक जगहों पर संपत्तियों के होने की बात कही थी। वह जनवरी 2007 से लेकर 2010 तक भारत के चीफ़ जस्टिस रहे। केरल हाई कोर्ट के पूर्व जज पीके शम्सुद्दीन ने कहा था कि बालाकृष्णन के ख़िलाफ़ ज़रूर जांच होनी चाहिए। उन्होंने बताया कि एक बार बालाकृष्णन के बेटे या फिर दामाद से मुलाक़ात कराने को लेकर एक दलाल ने उनसे संपर्क साधा था। उस समय बालाकृष्णन भारत के चीफ़ जस्टिस थे।
केरल हाई कोर्ट के जस्टिस के सुकुमारन ने आरोप लगाया था कि बालाकृष्णन ने निजी हितों के लिए अपने भाई को उनके नाम और पद के दुरुपयोग की खुली छूट दे रखी थी। केरल पुलिस और आयकर विभाग ने दावा किया था कि उनके परिवार ने 35 करोड़ रुपए का धन इकट्ठा कर रखा था जब वो भारत के चीफ़ जस्टिस थे. केरल सरकार ने जांच के आदेश दिए थे लेकिन कुछ हासिल नहीं हुआ।
इससे पहले इंदिरा गांधी ने अपने पसंद के लोगों को सुप्रीम कोर्ट में लाने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। इसके लिए उन्होंने वरिष्ठता को नज़रअंदाज़ करते हुए अपने चहेते लोगों को चुना। भारत के चीफ़ जस्टिस रहे मोहम्मद हिदायतुल्लाह को रिटायरमेंट के बाद भारत का उप-राष्ट्रपति बनाया गया। यह इंदिरा गांधी के मर्ज़ी के बिना संभव नहीं था। वह 1979-1984 तक भारत के उप-राष्ट्रपति रहे। भारत की पहली महिला चीफ़ जस्टिस एम फातिमा बीवी को रिटायरमेंट के बाद तमिलनाडु का राज्यपाल बनाया गया था। वह 1997 से 2001 तक राज्यपाल के पद पर रहीं।
हाल ही में हिंदुस्तान टाइम्स में लिखे एक लेख में जस्टिस लोकुर ने कहा है कि लोकतंत्र के चारों खंभों की विश्वसनीयता वापस बरक़रार करने की ज़रूरत है। उन्होंने लिखा है- “हाल में आए कुछ न्यायिक फ़ैसलों और प्रशासनिक क़दमों से ऐसा लगता है कि हमारे जजों को अपनी रीढ़ की हड्डी मज़बूत कर थोड़ा हिम्मत दिखाने की ज़रूरत है।” (वरिष्ठ पत्रकार रमेश मेनन की रिपोर्ट)