कैलाश मानसरोवर की भौगोलिक दूरी भले ही लिपुलेख (उत्तराखंड) से सबसे कम हो, लेकिन चीन की भारत के साथ टेढ़ी चाल इस राह की सबसे बड़ी ठोकर है। वैसे भी इन दिनो उसका नेपाल से याराना चल रहा है। ऐसे में सबसे छोटा रास्ता बना लेने के बावजूद, कैलाश मानसरोवर यात्रा शुरू भी हो जाए, तब भी भारत से ऐसे तीर्थ यात्रियों की तादाद अधिकतम एक हजार ही रहनी है क्योंकि मानसरोवर यात्रा की कमान पूरी तरह से चीन के हाथ में है। वही एक तरह से इसे तय करता है। कितने यात्री आएंगे, कहां रुकेंगे, कितने दिन रुकेंगे। इसलिए इस सड़क के बनने से यात्रा बढ़ेगी, यह कहना ग़लत होगा। यह ज़रूर है कि यात्रियों की जिस सीमित संख्या की अनुमति चीन देता है, उन यात्रियों को कुछ आसानी होगी और सड़क बन जाने से उस इलाके में घरेलू पर्यटकों का आना भी बढ़ेगा। इस इलाक़े में कई ट्रेक्स हैं और छोटा कैलाश जिसे कि आदि कैलाश भी कहते हैं, वह भी यहीं है। सड़क बन जाने से अब इन जगहों पर लोगों का आना बढ़ेगा तो गांव-गांव में होम-स्टे भी बनेंगे और स्थानीय लोगों को रोजगार भी मिलेगा।
भारत से जहां सिर्फ एक हजार यात्रियों को कैलाश मानसरोवर जाने की अनुमति मिलती है, वहीं नेपाल से बीस-तीस हजार यात्री हर साल इस यात्रा पर जाते हैं। बल्कि भारत के भी कई लोग नेपाल होते हुए ही यात्रा पर जाते हैं, क्योंकि वहां से यात्रा की औपचारिकताएं बहुत कम हैं और वहां निजी ट्रैवल एजेंट ही सारी व्यवस्था कर देते हैं। यदि लिपुलेख से भी निजी ट्रैवल एजेंट को यात्रा करवाने की छूट मिले और यात्रियों की संख्या बढ़ाने के लिए भारत-चीन में कोई समझौता हो सके, तो यह स्थानीय लोगों के लिए बेहद लाभदायक हो सकती है।
फिलहाल तो भारत से भी कैलाश मानसरोवर की यात्रा निजी ट्रैवल एजेंट्स को सौंपे जाने की संभावनाएं लगभग शून्य हैं और इसके वाजिब कारण भी हैं। पहला तो यही कि लिपुलेख बेहद संवेदनशील इलाका है। न सिर्फ़ राष्ट्रीय सुरक्षा की दृष्टि से यह इलाका बेहद महत्वपूर्ण है, बल्कि यहां की भौगोलिक संरचना भी नेपाल से होने वाली यात्रा की तुलना में बेहद कठिन है। यहां निजी हाथों में यात्रा नहीं सौंपी जा सकती है।
गौरतलब है कि धारचूला मोटर रोड को हाल ही में लिपुलेख दर्रे से जोड़ा गया है। इस सड़क का निर्माण दोनों तरफ से शुरू हुआ था। मतलब लिपुलेख से नीचे की ओर और तवाघाट से ऊपर की ओर। ऊपरी हिस्सों में तो सड़क काफ़ी पहले बन चुकी थी। कालापानी से आगे भी सड़क बन चुकी थी। वहां फौज और आईटीबीपी की गाड़ियां भी कई साल से चलने लगी थीं, लेकिन ये वही गाड़ियां थीं जिन्हें एयरलिफ़्ट करके वहां ऊपर पहुंचाया गया था। नीचे ये सड़क नजंग से आगे नहीं बनी थी, इसलिए आसपास के गांव सीधे धारचूला से नहीं जुड़े थे। यह पहली बार ही हुआ है। इस सड़क निर्माण के साथ ही अब व्यास घाटी में बसे तमाम गांव और लिपुलेख दर्रा भी मुख्य भारत से सीधा जुड़ गए हैं।
लिपुलेख ही वह जगह है जहां से कैलाश मानसरोवर की यात्रा होती है। इसके मुख्य भारत से जुड़ने के साथ ही कैलाश मानसरोवर जाने वाले यात्रियों का सफर काफ़ी हद तक आसान हो गया है लेकिन कई सालों की मेहनत के बाद जिस साल लिपुलेख को सड़क मार्ग से जोड़ने में भारत को कामयाबी मिली, उस साल संभवतः कैलाश मानसरोवर यात्रा ही न हो। कोरोना संक्रमण के चलते तय माना जा रहा है कि इस साल यह यात्रा रद्द कर दी जाएगी। 1962 में हुए भारत-चीन युद्ध के बाद जब 80 के दशक में यात्रा दोबारा शुरू की गई, तब से यह पहला मौक़ा है जब यात्रा पूरी तरह बंद रहेगी। इससे पहले 1998 में हुए माल्पा आपदा के कारण भी यात्रा बीच में ही स्थगित हुई थी, जब सैकड़ों यात्री भूस्खलन की चपेट में आ गए थे। 2013 में आई उत्तराखंड आपदा के दौरान भी यात्रा बीच में रोकनी पड़ी थी, लेकिन यह पहली बार है, जब यात्रा शुरू ही न हो।
यात्रा स्थगित होने का प्रभाव इस क्षेत्र के सैकड़ों लोगों पर पड़ने वाला है। आदि कैलाश मंदिर समिति का कहना है कि इस इलाक़े के सैकड़ों लोग यात्रा पर निर्भर होते हैं। धारचूला और आस-पास के गांवों से कई लड़के बतौर सहायक यात्रियों के साथ लिपुलेख दर्रे तक जाते हैं और सैकड़ों अन्य अपने घोड़े-खच्चरों से यात्रियों का सामान ढोते हैं। इन तमाम लोगों के लिए यही आजीविका का मुख्य स्रोत है जो इस साल बंद हो गया है। कोरोना महामारी के चलते इस साल भले ही यात्रा स्थगित रहे, लेकिन लिपुलेख तक सड़क बन जाने से आने वाले सालों में यात्रा काफी आसान हो जाएगी। स्थानीय लोगों का कारोबार बढ़ने की उम्मीद है, लेकिन यह कैलाश मानसरोवर यात्रा के कारण नहीं होगा, क्योंकि यात्रियों की संख्या चीन तय करता है और साल में करीब एक हजार यात्री ही यहां से इस यात्रा पर जा सकते हैं। यात्रियों की संख्या अगर बढ़े तो स्थानीय लोगों को लाभ होगा, लेकिन यह चीन की सहमति के बिना मुमकिन नहीं है। (दैनिक भास्कर से साभा, राहुल कोटियाल की रिपोर्ट का संपादित अंश)