भारत में लॉकडाउन खुलने के हफ़्तों बाद और कोविड-19 का पहला मामला सामने आने के चार महीने बाद भी यहां कोरोना वायरस के मामले तेज़ी से बढ़ रहे हैं। इस संकट से जुड़ी पांच अहम बातें अब तो इस समय विशेष गौरतलब हो गई हैं। संक्रमण के तीन लाख 20 हज़ार मामले सामने आ चुके हैं, जिससे देश संक्रमण के मामले में रूस, ब्राज़ील और अमरीका के बाद चौथे नंबर पर आ गया है लेकिन अर्थशास्त्रियों के के मुताबिक भारत प्रतिव्यक्ति संक्रमण के लिहाज से 143वें स्थान पर है।
वायरस की प्रभावी प्रजनन संख्या गिर गई है। यह एक बीमारी के फैलने की क्षमता को मापने का एक तरीक़ा है। साथ ही रिपोर्ट किए गए संक्रमण के मामलों के दोगुना होने का समय भी बढ़ गया है। साथ ही, देश में कोरोना वायरस के मामलों में अब भी तेज़ी बन हुई है। मुंबई, दिल्ली और अहमदाबाद जैसे हॉटस्पॉट शहरों में लोगों को अस्पताल नहीं मिल रहे हैं और मौते हो रही हैं।
कोविड-19 के मरीज़ों का इलाज़ करने वाले एक डॉक्टर बताते हैं कि अगर इन जगहों पर संक्रमण इस तरह बढ़ता रहा तो हालात न्यूयॉर्क जैसे हो जाएंगे।
इन शहरों से दिल दहला देने वालीं ख़बरें सामने आ रही हैं। मरीज़ों को अस्पताल में भर्ती न किए जाने से उनकी मौत हो रही है। ऐसे ही एक दुखद मामले में एक शख़्स शौचालय में मृत पाया गया था। लोग टेस्ट नहीं करा पा रहे हैं क्योंकि लैब के पास पहले ही जांच के लिए बड़ी संख्या में सैंपल हैं। इस महामारी के शुरू होने से पहले ही भारतीय अर्थव्यवस्था चरमरा रही थी। ऐसे में देश एक और सख़्त लॉकडाउन नहीं झेल सकता जिससे कारोबार ठप्प पड़ जाएंगे और लोगों की नौकरियां चली जाएंगी। ऐसे में भारत को संक्रमण रोकने के लिए और ज़्यादा मेहनत करने की ज़रूरत है।
हार्वर्ड ग्लोबल हेल्थ इंस्टीट्यूट के डायरेक्टर आशीष झा का कहना है कि वह बढ़ते मामलों को लेकर वाकई चिंतित हैं। ऐसा नहीं है कि मामले पीक पर पहुंचेंगे और उसके बाद अपने आप गिरने शुरू हो जाएंगे। ऐसा होने के लिए आपको प्रयास करने होंगे। दूसरे शब्दों में भारत हर्ड इम्यूनिटी पाने और वायरस को रोकने के लिए अपने 60 प्रतिशत लोगों के संक्रमित होने का इंतज़ार नहीं कर सकता। इसका मतलब होगा लाखों लोगों की मौत, जिसे स्वीकार नहीं किया जा सकता है। यद्यपि अभी संक्रमण मामलों पर काबू नहीं पाया जा सका है. इसमें लगातार और स्थिर गिरावट देखने को नहीं मिल रही है, ऐसे में हमें चिंता करनी चाहिए लेकिन पैनिक नहीं।
क्या भारत में कम मौतों का आंकड़ा भ्रामक है? हां और नहीं। भारत में मामला मृत्यु दर (सीएफआर) या कोविड-19 के कारण मरने वाले लोगों का अनुपात लगभग 2.8% है लेकिन ये मामले विवादस्पद हैं क्योंकि इन्हें लेकर कई बातें सामने आ रही हैं। संक्रमण के कुल मामलों से मौत के आंकड़ों को विभाजत करने में समस्या ये है कि इसमें वो मामले शामिल नहीं होते जो रिपोर्ट नहीं हुए या जिनका समय पर इलाज़ ना मिलने से मौत हो गई। विशेषज्ञों का कहना है कि महामारी के इस चरण में कुल मिलाकर सीएफआर को देखने से सरकार को आत्मसंतुष्टि ही मिल सकती हैं। सीएफआर एक भम्र है। अगर आप बंद हो चुके मामलों से (जहां हमें मरीज़ का क्या हुआ ये पता है) मौतों की संख्या को भाग देते हैं तो वायरस से हुई मौतों का ज़्यादा बड़ा प्रतिशत मिलेगा। यहां तक कि प्रति व्यक्ति मृत्यु दर भी बीमारी के प्रसार की समझ को सीमित करती है लेकिन, चिंता की बात ये है कि कोविड-19 से हुईं कुल 9000 मौतों में से एक-तिहाई महाराष्ट्र, गुजरात और दिल्ली से ही हैं।
कुछ ग़लतियों के कारण मामले कम दर्ज किए जा रहे हैं। जैसे कि चेन्नई में आधिकारिक आंकड़ों के मुक़ाबले असल मामले दोगुने थे। ये गड़बड़ी इसलिए हुई क्योंकि जिन दो रजिस्टर में मौत के मामले दर्ज किए गए थे, उन्हें जोड़ा ही नहीं गया। साथ ही दुनिया के कई देशों की तरह यहां भी एक उलझन बनी हुई है कि कोविड-19 से हुई मौत को कैसे परिभाषित करें। अर्थशास्त्री बताते हैं कि उम्र के अनुसार मौत के आंकड़ों को देखने से पता चलता है कि भारत में युवाओं की मौतों की संख्या अनुमान से कहीं ज़्यादा है।
30 अप्रैल तक महाराष्ट्र में 40 से 49 वर्ष के लोगों की मृत्यु दर 4% थी. वहीं, इटली में इसी आयु वर्ग में मौतों की संख्या इसके दसवें हिस्से के बराबर थी। पता करने की ज़रूरत है कि इतने सारे नौजवान क्यों मर रहे हैं। क्या ये जीवनशैली संबंधी बीमारियों जैसे डायबिटीज़ और प्रदूषण के चलते श्वसन संबंधी समस्याओं के कारण हो रहा है? क्या बाकी दुनिया की तुलना में हमारे पास एक अस्वस्थ युवा आबादी है लेकिन, जानकार कहते हैं कि फिर भी भारत में कुल मृत्यु दर कम रहेगी और मरने वालों में सबसे ज़्यादा संख्या बुजुर्गों की होगी। हमारे यहां संक्रमण बड़ी संख्या में हैं लेकिन बहुत कम लोग बीमार हैं. ऐसे में हमने खुद को बेहद ख़राब स्थिति से बचा लिया है।
महामारी सोशल डिस्टेंसिग, टेस्टिंग की क्षमता, जनसंख्या घनत्व, आयु संरचना, सामाजिक सामूहिकता और किस्मत जैसे कारकों से प्रभावित होती है। भारत में लाखों मजदूरों के शहर छोड़कर अपने घर लौटने के चलते संक्रमण का फैलाव हुआ। ये मजदूर अचानक हुए लॉकडाउन के कारण नौकरी खो चुके थे और उनके पैसे भी नहीं थे। वो पैदल चलकर, भीड़भाड़ वाली ट्रेनों और बसों से अपने गावों में पहुंचे। उदाहरण के लिए, ओडिशा में 80 प्रतिशत मामले इन मजदूरों के ही हैं। इसलिए इसे भारत में फैली महामारी के तौर पर नहीं देखना चाहिए। ये दिल्ली की महामारी, मुंबई की महामारी और अहमदाबाद की महामारी है। इन शहरों में 100 सैंपल पर पॉज़िटिव मामलों की दर राष्ट्रीय औसत से चार से पांच गुना ज़्यादा है। जैसे-जैसे देश भर में मामले बढ़ेंगे स्वास्थ्य प्रणाली पर दबाव बढ़ता जाएगा। भारत को स्वास्थ्य सेवाओं की क्षमता बढ़ाने की वाकई आवश्यकता है।
भारत को संसाधनों जैसे डॉक्टर, स्वास्थ्यकर्मी, उपकरण, दवाइयां, वेंटिलेटर को कम मामलों वाली जगहों से ऐसी जगहों पर स्थानांतरित करना चाहिए, जहां मामले पीक पर पहुंचने वाले हैं। सेना की चिकित्सा सेवाएं, जिसमें उत्कृष्ट डॉक्टर और स्वास्थ्य सेवा पेशेवर हैं, इन्हें तेजी से उभरते हुए हॉटस्पॉट में स्थानांतरित करने में मदद कर सकते हैं। जानकार कहते हैं कि भारत ने समझदारी दिखाते हुए जल्दी लॉकडाउन शुरू कर दिया ताकि वायरस के प्रसार को धीमा किया जा सके। किसी भी देश ने इतनी जल्दी लॉकडाउन नहीं किया। इससे सरकार को तैयारी करने का समय मिल गया। इससे कई मौतें होने से बच गईं लेकिन, ये लॉकडाउन चार घंटों के नोटिस पर हुआ है और मज़दूरों के शहर छोड़ने के चलते ये बुरी तरह टूट गया। अब बहस इस बात पर है कि सरकार ने लॉकडाउन के समय का इस्तेमाल टेस्टिंग बढ़ाने और स्वास्थ्य ढांचे को मजबूत करने में किया या नहीं। विशेषज्ञों का कहना है कि अगर भारत ने अच्छी तैयारी की होती तो मुंबई, अहमदाबाद और दिल्ली में संक्रमण के बढ़ते मामलों को रोकने में नाकामी नहीं मिलती।
डॉक्टरों, स्वास्थ्यकर्मियों, तैयार बेड की कमी और सरकारी अस्पतालों पर भरोसा ना होने के चलते लोग संघर्ष कर रहे हैं। इसके कारण वो निजी अस्पतालों का रुख कर रहे हैं जो आपात स्थिति के लिए कभी पूरी तरह तैयार नहीं थे। देश में टेस्टिंग अब भी एक समस्या बनी हुई है। यहां एक दिन में 150,000 टेस्ट हो रहे हैं जबकि लॉकडाउन शुरू होने पर हज़ार के करीब टेस्ट होते थे. लेकिन, फिर भी यहां पर सबसे कम प्रति व्यक्ति परीक्षण दर है। कई लोगों का कहना है कि भारत को 30 जनवरी को पहला मामला सामने आने के बाद ही टेस्टिंग बढ़ा देनी चाहिए थी।