चीन सीमा से सटे उत्तराखंड के सीमान्त गांवों के लोगों में चीन के खून-खराबों को लेकर भारी गुस्सा है। चमोली के सीमान्त गांव माणा, नीती, मलारी घाटी के ग्रामीणों का कहना है कि सेना और सरकार का जैसा भी आदेश होगा, उसके लिए हम तैयार हैं। भारत के आखिरी गांव माणा के ग्राम प्रधान पीताम्बर मोलफा कहते हैं कि चीन की हरकत से हम सतर्क हैं। गांव के पूर्व प्रधान भगत सिंह कहते हैं कि यदि आवश्यकता पड़ेगी तो हम अपने देश की सेना के साथ खड़े हैं। माणा की नन्दी देवी कहती हैं अभी इस इलाके स्थिति शान्ति पूर्ण है। उच्च शिक्षा प्राप्त माणा गांव की राखी परमार कहतीं हैं कि सीमान्त गावों के लोग बहादुर हैं। कैलाश पुर मेहर गांव के पूर्व प्रधान धीरेन्द्र गरोडिया कहते हैं कि हमारे देश की सेना, आईटीबीपी का जो भी आदेश होगा, हम सब सीमान्त गांवों के लोग एकजुट हैं।
सीमान्त गांव मलारी के कुंवर सिंह रावत का कहना है कि इस सीमावर्ती गांवों के लोगों में चीन से कोई डर नहीं है। नीती मलारी घाटी के मेहरगांव के 85 वर्षीय प्रताप सिंह टोलिया कहते हैं कि चीन से हम कभी नहीं डरे । सन् 1962 से पहले तिब्बत से व्यापार करते थे। चीन ने तिब्बत को हड़प लिया लेकिन हम इस सीमा के लोग चीन के विरुद्ध डटे रहे। आगे भी डटे रहेंगे। नीति गांव के पूर्व प्रधान आशीष राणा कहते हैं कि यदि चीन हमारी संम्प्रभुता पर ठेस पहुंचाने की कोशिश भी करेगा तो हम अपनी सेना के साथ उठ खड़े होंगे।
इन गांवों के लोग भारत और चीन की 1962 की लड़ाई को आज भी नहीं भूल पाए हैं। दोनों देशों में फिर युद्ध होने की आशंका के बाद ही तत्कालीन सरकारों ने उत्तराखंड के इस पहाड़ी भूभाग में नई प्रशासनिक इकाइयों का गठन शुरू कराया था। राज्य के इन सीमान्त जिलों के लोग उस युद्ध से पहले तिब्बत के साथ व्यापार पर निर्भर थे। साल 1962 के भारत-चीन युद्ध के बाद सीमान्त की समृद्ध मानी जाने वाली इन घाटियों के लोगों की आजीविका बंद हो गई और उन्हें दूसरे रास्तों का चुनाव करना पड़ा। हालांकि, इसका एक लाभ यह हुआ कि सरकारों को इन उपेक्षित पड़ी घाटियों में सड़क मार्ग बनाने की सुध आई।
चीन के कब्जे से पहले पिथौरागढ़, चमोली और उत्तरकाशी के सीमांत के तिब्बती शौका व्यापारी पूरी तरह से भारत-तिब्बत व्यापार पर निर्भर थे। इन घाटियों का पूरा भोटिया समाज कारोबारी समाज के रूप में जाना जाता था लेकिन चीन युद्ध के बाद तिब्बत से कारोबार पूरी तरह बंद हो गया। खासकर भोटिया समाज के सामने रोजगार का संकट खड़ा हो गया। इसके बाद ही भारत सरकार ने भोटिया समेत उत्तराखंड के पांच समुदायों को जनजाति का दर्जा दे दिया। अब भोटिया समाज मुख्यरूप से नौकरी पेशा वाले समाज के रूप में जाना जाता है।
समुदाय के लोग भारतीय प्रशासनिक सेवा के वरिष्ठ पदों तक पहुंचे हैं। इतिहासविद् और पहाड़ पत्रिका के संपादक प्रफेसर शेखर पाठक के अनुसार चीन युद्ध से पहले भारत सरकार को सीमांत पर चीन की गतिविधियों की जानकारी साल 1956 में स्थानीय ट्रेड एजेंट लक्ष्मण सिंह जंगपांगी ने सबसे पहले दी थी ।इसके बाद हरकत में आई तत्कालीन यूपी सरकार ने साल 1960 में पिथौरागढ़, चमोली और उत्तरकाशी के सीमांत जिलों का गठन किया।
साल 1960 में ही यूपीपीएसी से स्पेशल प्रोटेक्शन फोर्स के रूप में एक अलग बल का गठन कर उसे सीमान्त इलाके की रक्षा की जिम्मेदारी दी गई। बाद में आईटीबीपी गठित होने के बाद इसका विलय कर दिया गया। 90 के दशक तक उत्तराखंड के गांवों में लोगों को एसएसबी के जरिए आत्मरक्षा का प्रशिक्षण भी चीन से आसन्न खतरे को देखते हुए ही दिया जाता रहा। साल 1962 के युद्ध में कुमाऊं और गढ़वाल रायफल के सैनिकों ने भारी संख्या में शहादत दी थी।
इसी कारण कुमाऊं रेजिमेंट मेजर शैतान सिंह और गढ़वाल रायफल के रायफलमैन सावंत सिंह के नाम पर युद्ध के दो मोर्चों पर अलग अलग स्मारक आज भी मौजूद हैं। प्रफेसर पाठक ने बताया कि इस युद्ध के बाद उत्तराखंड के गांवों में बाल विधवाओं और अनाथ बच्चों की संख्या में अचानक इजाफा हो गया। चीन युद्ध के बाद की सामाजिक स्थिति को देखकर ही सरकार को शहीद सैनिकों के परिजन की देखभाल का ख्याल आया।
नैनीताल जिले में सैनिक स्कूल की स्थापना और शहीदों के परिजन को शिक्षा और रोजगार में आरक्षण की शुरुआत इसके बाद ही हुई। साल 1962 के युद्ध काल में ही सरकार ने उत्तरकाशी के राजस्व ग्राम नेलांग और जांदुग को पूरी तरह खाली कराते हुए इन्हें हर्षिल के पास बगोरी और डुंडा में बसाया।