दूसरे देशों की तरह भारत में भी रिसर्च एजेंसियां और कंपनियां कोरोना का बचाव ढूंढने में लगी हैं। इस दौर में ये कड़ी वास्तविकता स्वीकार करनी होगी कि एक सुरक्षित टीका तुरंत नहीं मिल सकता। इसीलिए विकसित और अमीर देशों के जाने माने विशेषज्ञ भी दुनिया को सिर्फ कोरोना के टीके के भरोसे न रहने की सलाह दे रहे हैं। कोरोना की दवा अब तक न मिल पाना कोई नई बात नहीं है। हमारे सीमित संसाधनों वाले देश के लिए किसी भी बीमारी का टीका उपलब्ध होने और लोगों तक पहुंचने की राह हमेशा से लम्बी रही है।
मिसाल के तौर पर पोलियो का टीका पहली बार 1955 में बना और भारत में इसका टीकाकरण 1978 में शुरू हुआ और 1999 तक नवजात शिशुओं में इसकी 60% कवरेज हो पायी थी। स्वास्थ्य मंत्रालय को नीतिगत सलाह देने वाले कहते हैं कि टीके का उत्पादन करने की क्षमता तो भारत के पास है लेकिन अगर विदेशी कंपनी वैक्सीन ईजाद करती है तो वह क्या हमें टेक्नोलॉजी ट्रांसफर करेगी? यह भी कहा जा रहा है कि कोरोना की प्रभावी रोकथाम के लिए कम से कम दो-तिहाई आबादी को टीका देना ही पड़ेगा।
विशेषज्ञों का कहना है कि वैक्सीन को बड़े स्केल पर जाना है। वयस्कों को देना है तो भी बड़ी संख्या में टीका चाहिए। फिर उसका वितरण एक बड़ा मुद्दा है। बनाने में तो कई महीने लगेंगे लेकिन लोगों तक पहुंचाने के लिए भी बहुत सारे लोग (हेल्थ वर्कर) और संसाधन चाहिए। उसे झुग्गी-झोपड़ियों तक कैसे ले जायेंगे। हमें कम से कम 60-70% लोगों को तो टीका देना ही होगा। मेरे हिसाब से वैक्सीन बन जाने और अप्रूव हो जाने के भी एक साल बाद भी ये काम हो जाए तो उसे बहुत चमत्कार ही माना जाएगा।
भारतीय कंपनियों और रिसर्चर ने कई बार दिखाया है कि वह लाइलाज बीमारियों की दवा और टीके खोजने की क्षमता रखते हैं। नब्बे के दशक में बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने कैंसर की दवाओं के जरिए एचआईवी एड्स का इलाज ढूंढा और कुछ ही सालों में मैनेज किया और कुछ ही सालों में भारतीय कंपनियों ने भी इसे विकसित कर लिया। तो ऐसा नहीं है कि भारतीय कंपनियां कमजोर हैं रिसर्च एंड डेवलपमेंट के मामले में। अनुभव रहा है भारतीय कंपनियां बहुत सक्षम हैं। उनके पास तकनीकी क्षमता है और वह इस काम को जानती हैं। हां इतना जरूर है कि उन्हें कभी-कभी इंटेलेक्चुअल प्रॉपर्टी राइट्स और पेटेंट का बैरियर फेस करना पड़ता है।
टीका को लेकर एक अहम मुद्दा स्वास्थ्य सुरक्षा से जुड़ा है। एक्सपर्ट कहते हैं कि जल्दी टीका बनाने के चक्कर में प्रक्रिया से समझौता नहीं किया जाना चाहिए। कोरोना के इलाज के लिए टीका जरूरी है लेकिन किसी भी वैक्सीन के पीछे बड़ी बड़ी कंपनियों का निवेश होता है और मुनाफा कमाने की नीयत भी। पब्लिक हेल्थ पर कई साल से काम कर रही एक बाल रोग विशेषज्ञ कहती हैं- हमने देखा है कि किस तरह डायरिया जैसी बीमारी के टीके भी जबरदस्ती लाए गए जिसके लिए सरकार को साफ पानी जैसी बुनियादी जरूरत उपलब्ध करानी थी न कि टीका चाहिए था। यह दिखाता है कि किस तरह जनता के पैसे का टीके के नाम पर गलत इस्तेमाल भी हो सकता है लेकिन कोरोना पर हालांकि यह बात लागू नहीं होती। हमें ये टीका चाहिए लेकिन यहां बड़ा मुद्दा है कि वैक्सीन बनाने की प्रक्रिया का सही-सही पालन हो।
जिस बात की ओर उनका संकेत है, वह वैक्सीन की अनैतिक टेस्टिंग का मामला है, जहां गरीब देशों की जनता गिनी पिग की तरह इस्तेमाल की जाती है। वैक्सीन कई साल बाद भी और बहुत कम संख्या में भी लोगों पर दुष्परिणाम दिखा सकती हैं। इसलिए प्रक्रिया में शॉर्टकट खतरनाक हो सकता है। ऐसी दवाएं जिनके बारे में पहले से पता हो तो बात समझ में आती है लेकिन किसी भी नयी दवा या स्टेरॉइड को आप (इलाज के नाम पर) कम्युनिटी में नहीं फैला सकते। ये बहुत पेचीदा विषय है। बहुत तकनीकी और पॉलिटिकल मामला है। इसमें पैसे का भी बड़ा खेल है लेकिन कुछ चीजें बहुत आसानी से कही जा सकती हैं। बिल्कुल नई वैक्सीन को आप फास्ट ट्रैक नहीं कर सकते।