कहीं पहाड़ तोड़-तोड़कर होटल, हवेलियां बन रही हैं, कहीं पौड़ी झील तो कहीं दर्रों में सड़कें, ये सब जो चल रहा है, प्रकृति को मुंह चिढ़ाना नहीं तो और क्या है। अब प्रकृति समझा रही है कि चाहे कितने भी बहुमत वाली सरकार और मंदिर-मस्जिद कोई बना-बिगाड़ ले, कोई उससे ज्यादा ताकतवर नहीं है, न अमेरिका, न चीन, न भारत, न पूरी दुनिया। चांद और मंगल पर जाना और बात है, प्रकृति का एक झटका झेलने का बूता किसी में नहीं है। अब कोरोना वायरस का कहर जारी है तो वैज्ञानिकों ने चेतावनी दी है कि इंसानों ने एक ऐसा माहौल बना दिया है, जिसमें पशु-पक्षियों की बीमारियां, इंसानों में आ रही हैं और दुनियाभर में तेज़ी से फैल रही हैं। वैज्ञानिकों का ये भी कहना है कि प्रकृति में इंसान के अतिक्रमण की वजह से ये प्रक्रिया और भी तेज़ हो गई है। ये बात वैश्विक स्वास्थ्य विशेषज्ञों ने कही है जो नई बीमारियों के फैलने की प्रक्रिया और स्थान का अध्ययन करते हैं।
वैज्ञानिक बता रहे हैं कि जंगलों के कटान और विविधता से भरी वन्यजीवन में इंसानों के अतिक्रमण को लेकर इंसानी रवैया जानवरों से इंसानों में बीमारी के प्रसार के लिए ज़िम्मेदार है। यूनिवर्सिटी कॉलेज लंदन के प्रोफेसर केट जोन्स कहती हैं कि सबूत ये बताते हैं कि कम जैवविविधता वाले इंसानों की ओर से बदले गए पारितंत्र (इकोसिस्टम) जैसे कि खेत और बाग आदि में इंसानों के कई बीमारियों से संक्रमित होने का ख़तरा ज़्यादा होता है लेकिन वह ये भी कहती हैं कि सभी मामलों में ऐसा हो, ये ज़रूरी नहीं है लेकिन सभी तरह की जंगली प्रजातियां जो कि इंसानों की मौजूदगी के प्रति सहनशील होती हैं जैसे कि रोडेंट प्रजाति (चूहे आदि) अक्सर कई पैथोजन को संभालकर रखने और संक्रमित करने में काफ़ी प्रभावी होती हैं। ऐसे में जैव-विविधता की कमी के चलते ऐसी स्थिति पैदा हो सकती है जहां इंसानों और जानवरों के बीच संपर्क बढ़े और कुछ निश्चित विषाणुओं, जीवाणुओं और परजीवियों को इंसानों को संक्रमित करने का मौका मिले।
विशेषज्ञों ने एक पैटर्न रिक्गनिशन सिस्टम विकसित किया है जो कि ये बताने में सक्षम है कि वन्य जीवों से जुड़ी कौन सी बीमारी इंसानों के लिए कितनी ख़तरनाक साबित हो सकती है। यूनिवर्सिटी ऑफ़ लिवरपूल के वैज्ञानिकों को नेतृत्व में जारी इस वैश्विक प्रयास के तहत उन रास्तों को विकसित किया जा रहा है जिनके ज़रिये भविष्य की महामारियों के लिए बेहतर ढंग से तैयार हुआ जा सके।
यूनिवर्सिटी ऑफ़ लिवरपूल के प्रोफेसर मेथ्यू बेलिस कहते हैं कि बीते पांच सालों में हमारे सामने सार्स, मर्स, इबोला, एविएन इंफ़्लूएंजा और स्वाइन फ़्लू के रूप में पांच बड़े ख़तरे आए हैं। हम पांच बार बचने में कामयाब रहे लेकिन छठवीं बार हम बच नहीं सके। और ये कोई आख़िरी महामारी नहीं है. ऐसे में हमें वन्यजीवों से जुड़ी बीमारियों पर विशेष अध्ययन करने की ज़रूरत है। इस काफ़ी बारीक़ अध्ययन के तहत बेलिस और उनके साथियों ने प्रिडिक्टिव पैटर्न रिकग्निशिन सिस्टम तैयार किया है जो कि वन्यजीवों से जुड़ी सभी विदित बीमारियों के डेटाबेस की पड़ताल कर सकता है।
ये सिस्टम हज़ारों जीवाणुओं, परजीवियों और विषाणुओं का अध्ययन करके ये पता लगाता है कि वे कितनी और किस तरह की प्रजातियों को संक्रमित करते हैं। इस जानकारी के आधार पर ये सिस्टम ये तय करता है कि कौन सी बीमारी इंसानों के लिए कितनी ख़तरनाक है। अगर किसी पैथोजेन को प्राथमिकता के क्रम में ऊपर रखा गया है तो वैज्ञानिक उससे बचाव और इलाज़ की तलाश के लिए महामारी फैलने से पहले ही शोध शुरू कर सकते है। बेलिस कहते हैं कि ये तय करना कि कौन सी बीमारी महामारी का रूप ले सकती है, द्वितीय चरण का काम है। फिलहाल हम पहले चरण पर काम कर रहे हैं।
लिवरपूल यूनिवर्सिटी और इंटरनेशनल लाइवस्टॉक रिसर्च इंस्टीट्यूट (नैरोबी) कहता है कि शोधार्थियों को उन क्षेत्रों के प्रति लगातार सजग रहने की ज़रूरत है जहां इस तरह के कोरोना जैसे वायरस फैलने का ख़तरा ज़्यादा है। जंगलों के किनारे बसे खेत और पशु बाज़ार ऐसी जगहें हैं जहां पर इंसानों और वन्यजीवों के बीच दूरी काफ़ी कम हो जाती है और ऐसी ही जगहों से बीमारियों के फैलने की संभावना रहती है। हमें ऐसी जगहों को लेकर हमेशा सचेत रहने की ज़रूरत है और ऐसी व्यवस्था करनी चाहिए कि कुछ अजीब हरकत जैसे कि कोई बीमारी फैलने पर समय रहते प्रतिक्रिया की जा सके। इंसानों में हर साल तीन से चार बार नई बीमारियां सामने आ रही हैं, और ये सिर्फ एशिया या अफ़्रीका में नहीं हो रहा है, बल्कि यूरोप और अमरीका में भी हो रहा है। नई बीमारियों पर लगातार नज़र रखा जाना बेहद ज़रूरी है क्योंकि हमने एक महामारियों के लिए उपयुक्त स्थितियां पैदा कर दी हैं। इस तरह की बीमारियां बार बार आ सकती हैं। प्राकृतिक दुनिया के साथ हमारे संपर्क की प्रक्रिया में ये होता रहा है। अभी अहम बात ये है कि हम इसे समझ कर इसकी प्रतिक्रिया किस तरह दें। वर्तमान समस्या प्राकृतिक दुनिया पर हमारे प्रभाव के परिणाम के बारे में बता रही है।