कोरोना काल में, जबकि लाखों प्रवासी उत्तराखंड लौट कर अपनी जीविका की आगे की राह तलाश रहे हैं, जैविक खेती कर रहे राज्य के किसानों की सफलताएं अपनी जड़ों में ही उन्हे आगे संभावनाएं दिखती हैं। राज्य में इन दिनों कुछ काश्तकार तो सरकार के भरोसे जैविक खेती को आगे बढ़ा रहे है, कुछ किसान खुद के बूते जैविक खेती को विकसित कर रहे हैं। पहाड़ की खेती फिर से सरसब्ज हो रही है। इधर सरकार ने भी जैविक खेती को बढावा देने के लिए 1500 करोड़ का एकमुश्त बजट स्वीकृत कर दिया है।
गौरतलब है कि केन्द्र सरकार पहले ही उत्तराखंड में कृषि आधारित विकास की सभी परियोजनाओं को प्रोत्साहित करने के लिए 2600 करोड़ की योजना को स्वीकृति प्रदान कर चुकी है। यह पैसा पहाड़ में बंजर हो चुके खेतों को फिर से सरसब्ज करने पर खर्च होना है ताकि राज्य के पहाड़ों से पलायन पर ब्रेक लगे। इतना ही नहीं, राज्य में जैविक खेती को प्रोत्साहित करने के लिए सरकार ने अलग से 1500 करोड़ की योजना को हरी झंडी दे रखी है। राज्य के जैविक उत्पादों को बाजार देने के लिए ही जगह-जगह हाट लगाए जाते रहे हैं। उसी दिशा में उत्तराखंड सरकार की बाबा रामदेव के पतंजलि से करार की पहल भी हो चुकी है। करार के मुताबिक, राज्य में उत्पादित 1000 करोड़ रुपये तक के जैविक उत्पाद खुद पतंजलि ने खरीदने का सरकार को भरोसा दे रखा है।
मुनस्यारी (पिथौरागढ़) राज्य का घोषित जैविक विकास खंड है। यहां के अन्य विकास खंडों में भी जैविक खेती को बढ़ावा दिया जा रहा है। जिले में कुल 32 जैविक कृषि कलस्टर हैं। एक कलस्टर 20 हेक्टेयर भू-भाग में चिन्हित किया गया है, और प्रत्येक कलस्टर में 50 किसानों के माध्यम से जैविक खेती की जा रही है। बताया गया है कि राज्य में कुल 585 कलस्टरों में जैविक खेती हो रही है, जिससे 80 हजार किसान जुड़े हुए हैं। कृषि विभाग का दावा है कि राज्य में एक लाख 76 हजार क्विंटल से अधिक 15 किस्म की फसलों की जैविक उपज हो रही है। दस हजार नए कलस्टरों में जैविक खेती की पहल की गई है, जिससे राज्य के पांच लाख किसानों को जोड़ने की योजना है।
वैसे भी उत्तराखंड के पहाड़ी क्षेत्रों में रासायनिक खादों का नाम मात्र इस्तेमाल होता है। दिक्कत तो ये है कि पलायन के कारण राज्य के बंजर पड़े खेत चुनौती बने हुए हैं। अधिकांश गांवों की आबादी तितर-बितर हो चुकी है। तमाम गांव ‘भुतहा’ कहलाने लगे हैं। जैव-विविधता चक्र गड़बड़ा जाना एक अलग चैलेंज है। सरकारों का सच ये है कि उत्तराखंड राज्य निर्माण के लगभग दो दशक गुजर जाने के बावजूद ‘पारंपरिक खेती विकास परियोजना’ चलाती आ रही हैं, जिसे अब पीएम नरेंद्र मोदी का ‘ड्रीम प्रोजेक्ट’ बताया जाने लगा है।
अब कोरोना संकट से बाजार में जैविक उत्पादों की मांग और बाजार मूल्यों में भी इजाफा हो गया है। ऐसे में उत्तराखंड के किसानों की जैविक खेती पलायन पर भारी पड़ने वाली है। गाँव में बंजर पड़ी जमीन पर अपनी मेहनत से जैविक फसल लहलहाने वाले रुद्रप्रयाग के गांव नगरासू के नरेंद्र कफोला ने दिल्ली को रोजी को ठोकर मारकर स्वरोजगार की नई मिसाल पेश की है। वह गाँव लौटे तो फिर पलायन के चलते कंटीली झाड़ियों से ढक चुकी जमीन पर हरियाली लहराने लगी है। वह अपने जैविक सब्जियों और मसालों की खेती कर रहे हैं। शुरुआत में खेती से नरेंद्र को छोटे भाई महेंद्र कफोला के साथ सालाना करीब पौने दो लाख रुपए तक की कमाई हुई, जो आज मुनाफे का एक मजबूत, स्थायी सोर्स बन चुकी है। उन्होंने खेती के लिए ऑर्गेनिक इंटीग्रेटेड फार्मिंग मॉडल अपनाया। उन्हे उद्यान विभाग की भी मदद मिली। बद्रीनाथ हाईवे से लगे नगरासू गाँव में वह आज हिमसोना टमाटर, बैंगन, मेहरा कद्दू, भिंडी, शिमला मिर्च, लौकी, खीरा, मिर्च, अदरक, हल्दी, धनिया उगा रहे हैं। वह बताते हैं कि पहली फसल से उनको करीब डेढ़ लाख की कमाई हुई थी। अब उन्होंने इंटीग्रेटेड फार्मिंग कर आम,संतरा, नींबू, इलायची, अखरोट, अमरूद, आडू आदि फलों के भी तीन सौ पौधे लगा लिए हैं। आगे उनकी योजना दुग्ध डेयरी, फूलोत्पादन, मत्स्य पालन और मुर्गी पालन की भी है।
उधर, हल्द्वानी (नैनीताल) के गांव हिम्मतपुर मोटाहल्दू के अनिल पांडेय पिछले कुछ वर्षों में सात हजार से अधिक किसानों को जैविक खेती का प्रशिक्षण दे चुके हैं। वह राज्य सरकार से सम्मानित भी हो चुके हैं। अनिल पांडेय के पिता पशुपालन विभाग में कार्यरत थे। उनकी संगत में वह भी वर्ष 2002 में दुध व्यवसाय से जुड़ गए। बाद में उनका रुझान जैविक खेती में हो गया। वह इसके लिए आसपास के किसानों को प्रेरित करने लगे। कृषि विभाग ने उनको 2005 में जैविक प्रशिक्षक बना दिया। उसके बाद वह गांव-गांव घूमकर पूरे विकासखण्ड को जैविक ब्लॉक बनाने की मुहिम में जुट गए। किसानों को हरी खाद, जैव उर्वरक, वर्मी कम्पोस्ट, नाडेप कम्पोस्ट, नीम ऑयल, गोमूत्र की तरल खाद, ट्राइकोडर्मा, सुडोमनास, एजोला, विवेरिया बेसियाना आदि का प्रयोग सिखाने लगे। बीच-बीच में जैविक कृषि प्रशिक्षण केन्द्र मजखाली (रानीखेत) में प्रशिक्षित भी होते रहे। 2013 में उत्तराखण्ड ओपन यूनिवर्सिटी से जैविक कृषि में डिप्लोमा भी ले लिया। अब तो इफको तक उनके अनुभवों का लाभ उठाने लगा है।
अनिल पांडे बताते हैं कि दिल्ली में आयोजित राष्ट्रीय प्रगतिशील किसान सम्मेलन और पुरस्कार समारोह में प्रतिभाग करने के दौरान उन्होंने उत्तराखण्ड की जैविक सम्भावनाओं और समस्याओं को कृषि राज्य मंत्री गजेन्द्र सिंह सेखावत से साझा किया। वह कहते हैं कि रासायनिक दुष्परिणामों से आज हमारी भोजन की थाली विषाक्त हो गई है। इसीलिए वह शहर के लोगों को भी जैविक किचन गार्डन बनाने के लिए प्रेरित कर रहे हैं। जैविक बुकों से अपने अतिथियों का सम्मान करने वाले अनिल पांडेय अपने हिम्मतपुर मोटाहल्दू स्थित आवास पर ही जैविक कृषि प्रशिक्षण केन्द्र चला रहे हैं। उनकी प्रेरणा से पूरी ग्राम सभा जैविक खेती से जुड़ गई है। उनके घर पर जैविक पाठशाला में मिट्टी की जांच, पंचगव्य, पंचामृत, जीवामृत आदि खादों को बनाने की बृहद ट्रेनिंग दी जा रही हैं।