नैनीताल (उत्तराखंड) के गांव पवलगढ़ निवासी मनोहर सिंह मनराल होम-स्टे चलाते हैं- ‘इको हैरीमैन्स होम स्टे’, इसके साथ ही उन्होंने क्षेत्र के प्रकृति प्रेमियों के साथ मिलकर, ‘पवलगढ़ प्रकृति प्रहरी’ संगठन भी बना रखा है। अब मनराल के प्रयासों से पूरे पवलगढ़ जंगल क्षेत्र को एक अलग पहचान मिलने लगी है। एक आर्मी परिवार से संबंध रखने वाले मनोहर को बचपन से ही प्रकृति से लगाव था। वह बताते हैं कि स्कूल में लंच के समय जब सभी बच्चे खेलते थे तो वह अपना खाना खाकर स्कूल के बगीचे में माली काका से बतियाते थे। उनसे पेड़-पौधों के बारे में जानते-समझते और उनकी मदद करते। धीरे-धीरे वक़्त बीता और इसके साथ ही, उन्होंने इलेक्ट्रॉनिक में डिप्लोमा कर लिया। घर के सभी लोग चाहते थे कि वह इस क्षेत्र में आगे बढ़े और अपनी एक पहचान बनाएं। उत्तराखंड के गांवों को आत्म-निर्भर बनाने का और यहाँ से पलायन को रोकने का उनका संघर्ष पिछले दो दशकों से जारी।
मनराल बताते हैं कि वह जब नौकरी की तलाश में दिल्ली पहुंचे, वहां ज्यादा दिन नहीं रहे, दिल्ली रास नहीं आई, लौट पड़े अपने दिलरुबा पहाड़ों की गोद में। वह बताते हैं कि उन दिनो उत्तराखंड को उत्तर-प्रदेश से अलग करने की मांग जोरों पर थी। हम भी अपने ‘जल, जंगल, ज़मीन’ के लिए आंदोलन में कूद पड़े। वर्ष 2000 में आखिरकार उत्तराखंड का राज्य के रूप में उदय हुआ। उसी दौरान उन्होंने ‘जल, जंगल और ज़मीन’ के विचार को आत्मसात कर लिया। उन्हें समझ में आ गया कि वह प्रकृति से दूर नहीं रह सकते और इसलिए उन्होंने अपने गाँव में अपने लोगों के बीच रहकर कुछ करने का संकल्प लिया। उनका सफर अपनी बंज़र पड़ी छह एकड़ ज़मीन से शुरू हुआ। उनके पास फंड की कमी थी, जज़्बे और हौसले की नहीं।
मनोहर सिंह मनराल बताते हैं कि लोग उनसे पूछते हैं, इतना सब किया तो पैसा कहाँ से आया? मैं सोचता था कि जो लोग अनाथ हैं, रेलवे स्टेशन आदि पर दिखते हैं, उनके पास तो कुछ भी नहीं होता। फिर भी उनका गुज़ारा हो जाता है। ज़रूरी नहीं कि आपको कुछ करने के लिए बहुत बड़े फंड की ज़रूरत होती है। आप कम से कम साधनों में भी ज़िंदगी जी सकते हैं। उन्होंने अपनी पत्नी के साथ मिलकर सबसे पहले अपनी बंज़र ज़मीन को उपजाऊ बनाया। आज यहाँ लगभग 200 किस्म के पेड़ हैं।
उसके बाद मनराल ने अपने उसी भूखंड पर होम स्टे शुरू किया। उस समय गांवों में होम-स्टे जैसा शब्द किसी ने सुना भी नहीं था। वह बताते हैं कि जिम कॉर्बेट इस जगह से बहुत पास है और साथ ही, पवलगढ़ कंज़र्वेशन रिज़र्व होने के करण यहाँ यात्रियों का आना-जाना रहता है। ऐसे में, उनके दिमाग में आइडिया आया कि क्यों न इन यात्रियों को प्रकृति के बीच रहने, रुकने के लिए आश्रय दिया जाए। इससे गाँव के लोगों को भी रोज़गार मिलेगा। वर्ष 2000 में उन्होंने इको हैरीमैन्स होम-स्टे शुरू किया। सबसे अच्छी बात यह है कि इस होम-स्टे को सामुदायिक स्तर से संचालित किया जा रहा है। यहाँ पर तीन निजी कमरे और दो डोर्म्स हैं, जिनमें आराम से एक बार में 20 से ज्यादा लोग रह सकते हैं। इसके साथ ही, यहाँ पर मेहमानों के लिए अलग-अलग गतिविधियाँ हैं, जैसे जंगल की सैर, खेती-बाड़ी करना, पशुओं की देखभाल, पारंपरिक खेल जैसे कंचे, गिल्ली-डंडा, लोककथाएं सुनना, अपनी कहानियां सुनाना, खूबसूरत पक्षियों, तितलियों के बीच दिन बिताना…।
वह बताते हैं कि हमारे यहाँ ज़्यादातर वे लोग आते हैं जो पेशे से लेखक हैं या फिर गांवों के जीवन पर, जंगलों पर और प्रकृति पर रिसर्च कर रहे हैं। वे यहाँ रहकर अपना काम करते हैं, हमारे साथ वक़्त बिताते हैं और गाँव के लोगों से घुलते-मिलते हैं। बहुत से लोग तो अपने रिसर्च वर्क की कॉपी भी छोड़कर जाते हैं, जिन्हें हम सहेज कर रखते हैं ताकि आगे आने वाले लोगों के काम आ सकें। यहाँ पर ठहरने वाले लोगों को स्थानीय खाना ही परोसा जाता है। खाना तैयार करने के लिए सभी सामग्री जैविक है और आस-पास के किसानों से ही ली जाती है। स्थानीय महिलाएं कुमाऊंनी व्यंजन बनातीं हैं, जिनका स्वाद ये टूरिस्ट लेते हैं। मनोहर के मुताबिक उनके होम-स्टे से प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष तौर पर 90 ग्रामीणों को रोज़गार मिल रहा है।
कोई टूरिस्ट को वॉक पर लेकर जाता है तो किसी की ज़िम्मेदारी उन्हें जैविक कृषि के गुर सिखाने की होती है तो कोई खाना पकाता है। किसी का भी काम फिक्स नहीं है, अगर कोई वॉक पर गया है तो दूसरा रसोई के काम कर लेगा। ग्रामीणों के लिए यह पार्ट-टाइम जॉब की तरह है और बाकी समय वे अपनी खेती अच्छे से कर सकते हैं।
दिलचस्प बात यह है कि पिछले कुछ सालों में मनोहर सिंह ने इस इलाके के और भी बहुत से गांवों को इको-टूरिज्म से जोड़ा है। उन्होंने 2015 में पवलगढ़ प्रकृति प्रहरी संगठन शुरू किया और इसके अंतर्गत, उन्होंने प्रकृति संरक्षण और गांवों को रोज़गार से जोड़ने की पहल आरम्भ की। इस संगठन के ज़रिए वह गाँव के लोगों के लिए जैविक खेती और इको-टूरिज्म पर वर्कशॉप करवाते हैं ताकि गाँव के लोग अपने यहाँ यह शुरू कर सकें। साथ ही, इच्छुक लोग अपने घरों को होम-स्टे में तब्दील करके उनके साथ रजिस्टर कर सकते हैं। स्कूल और कॉलेज के बच्चों के लिए वह इको-टूरिज्म टूर भी करवाते हैं ताकि उन्हें प्रकृति से जोड़ा जा सके। उन्होंने लगभग 25 नेचर गाइड भी ट्रेन किए हैं जो आपको यहाँ की वनस्पति के साथ-साथ यहाँ के वन्यजीवों के बारे में भी जानकारी देंगे। आप गांवों में साइकिलिंग कर सकते हैं, बैलगाड़ी पर सैर कर सकते हैं और यहाँ के गांवों में चल रहे छोटे-छोटे गृहउद्योगों से स्थानीय चीजें खरीद सकते हैं।
पवलगढ़ प्रकृति प्रहरी, उत्तराखंड सरकार के साथ मिलकर दो स्प्रिंग बर्ड फेस्टिवल भी आयोजित का चुका है। मनोहर कहते हैं कि यहाँ आपको लगभग 200 किस्मों के पेड़-पौधों के साथ-साथ 125 किस्म की तितलियाँ, और 365 किस्म के पक्षी भी देखने को मिलते हैं।
“हम प्रकृति को तब तक नहीं सहेज सकते थे जब तक यहाँ पर बसे गांवों को इससे कोई रोज़गार न मिले। अब जब ग्रामीणों को रोज़गार मिलने लगा है तो वे खुद यहाँ के पेड़-पौधों और वन्यजीवों का ध्यान रखते हैं। उनकी पूरी कोशिश रहती है कि प्रकृति को किसी भी तरह का नुकसान न पहुंचे।
पवलगढ़ प्रकृति प्रहरी संगठन के प्रयासों से लगभग 24 गांवों के लिए रोज़गार के अवसर खुले हैं।
मनोहर सिंह को उनके इन कामों के लिए बहुत से पुरस्कार मिले हैं। वह आज नौला फाउंडेशन में ‘संरक्षक’ का पद भी संभाल रहे हैं और अब वह गाँव-गाँव जाकर वहां के युवाओं को अपने गांवों और कस्बों को सहेजने के लिए प्रेरित कर रहे हैं। उनका कहना है कि हम तब तक निर्भर नहीं होंगे, जब तक हम अपनी जगह पर उपलब्ध संसाधनों को अच्छे से उपयोग करते हुए जीना नहीं सीख लेते।