कोरोना की महामारी ने अनेक मूलभूत या बुनियादी सवालों को जन्म दिया है। उसने, एक ओर तो आजीविका के मौजूदा मॉडल से जुडे कुछ बुनियादी सवाल खडे किए हैं तो दूसरी ओर कतिपय पयार्वरणीय समस्याओं के समाधान को लेकर दिशाबोध के स्पष्ट संकेत दिए हैं। इन सवालों और प्रति-सवालों के बीच जो सबसे जरुरी संकेत उभर कर सामने आ रहा है वह इंगित करता है कि लॉकडाउन के प्रभावों को सीमित दायरे में रखकर नहीं देखा जाना चाहिए। उसे सट्टा बाजार के उतार-चढ़ाव से भी जोडकर नहीं देखना चाहिए। उसे उस लाभ को सामने रखकर परखना चाहिए जो शुभ भी हो। उसे बहुसंख्य समाज के स्थायी हित और अहित, सामाजिक सुरक्षा, सामाजिक समभाव एवं पर्यावरण के नजरिए से भी देखा, परखा और समझा जाना चाहिए। उसके समग्र अध्ययन के फोकस का केन्द्र-बिन्दु समाज की प्रतिक्रिया ही होना चाहिए। समग्र अध्ययन के द्वारा उन समस्याओं और सवालों का उत्तर खोजे जाना चाहए, जिन्हें देश की बहुसंख्य आबादी ने पलायन जनित विवशता के साथ देश के विचारकों, योजनाकारों तथा प्रबन्धकों के सामने रखा है। यह विकास के मॉडल की परीक्षा से भी सम्बद्ध मामला है, क्योंकि आपातकालमें ही चीजें कसौटी पर रखकर परखी जाती हैं। कुछ लोगों को लगता है कि एक ओर यदि लॉकडाउन ने सामाजिक सुरक्षा से जुडे अनेक सवालों को रेखांकित किया है तो दूसरी ओर पर्यावरण से सम्बद्ध अनेक प्रश्नों के समाधान के लिए मार्गदर्शन भी दिया है। चलिए कुछ बिन्दुओं पर चर्चा को फोकस करें।
लॉकडाउन के कारण महानगरों में चल रहे अनेक विकास कार्य अटक गए हैं। बहुत से कारखानों का उत्पादन बन्द हो गया। बहुत से अर्ध-कुशल बेरोजगार हुए हैं और दिहाडी मजदूरों का रिवर्स-पलायन प्रारंभ हुआ। इस रिवर्स-पलायन की कहानियाँ देश की आत्मा को झकझोरने वाली हैं। क्योंकि उस रिवर्स-पलायन की जड में जो डर है वह डर ही उन पलायनकर्ताओं को, बिना किसी साधन के, लॉकडाउन की कानूनी पाबन्दियों को तोडकर, अपने परिवार के साथ, सैकड़ों किलोमीटर की यात्रा कर, अपनी जड़ों के पास वापिस लौटने की ताकत दे रहा है। अज्ञात भरोसा दे रहा है। संभवतः इसी भरोसे के कारण बुन्देलखंड लौटे अनेक मजदूरों का कहना था कि यदि उन्हें स्थानीय स्तर पर स्थायी रोजगार मिले तो वे कभी भी घर छोडकर, बाहर नहीं जाना चाहेंगे।
मौजूदा रिवर्स-पलायन, किसी हद तक, मोहभंग का मामला है। पलायनकर्ता गांवों में रोजगार के कम होते अवसरों के कारण अलग-अलग नगरीय इलाकों में रोजगार की तलाश में गए थे। संभव है जाते समय उनके मन में कोई सपना हो पर लॉकडाउन ने उस सपने को तार-तार कर दिया है। संभवतः उन्हें लग रहा है कि नगरीय रोजगार में स्थायित्व तथा सामाजिक समरसता का अभाव है। मालिक और मजदूर के बीच केवल प्रोफेशनल सम्बन्ध हैं। उन सम्बन्धों को कठिनाई के दिनों में परखने से उसकी कलई खुल जाती है। वह विश्वसनीय नहीं है और भी कारण हो सकते हैं लेकिन मौटे तौर पर लगता है कि संभवतः यही मोहभंग उस हर मजदूर ने भोगा है, जो वायदों और मृगतृष्णा के चलते नगरों में भविष्य खोजने चला गया था। आश्चर्यजनक है कि लौटने वालों में देश के हर ग्रामीण अंचल के अशिक्षित, अर्ध-शिक्षित तथा अर्ध-कुशल लोग हैं। प्रश्न है कि क्या सभी का अनुभव लगभग एक-जैसा है ? यदि हाँ तो क्या यह पलायन नगरीय रोजगार की चकाचैंध को फिर से पटरी पर ला सकेगा। शायद हाँ, क्योंकि पिछले 50 से 60 सालों में हमारी ग्रामीण अर्थ-व्यवस्था, अपनी उस क्षमता को खो चुकी है जिसकी बदौलत उसने विपत्ति के दिनों में भी समाज को बिखरने से बचाकर एकजुट रखा था। मौजूदा रिवर्स-पलायन, ग्रामीण अर्थ-व्यवस्था में, उसी उम्मीद को खोज रहा है। वह सामाजिक सुरक्षा खोज रहा है। संविधान में दर्ज अपने मूलभूत अधिकारों को खोज रहा है।
यह सही है कि भारत की ग्रामीण अर्थ-व्यवस्था के पुराने मॉडल को यथावत स्वीकार करने में अनेक कठिनाईयाँ है। ग्रामीण आबादी, प्रति व्यक्ति भूमि की उपलब्धता, खेती के कुदरती संकट और सबके ऊपर शुभ लाभ नहीं देने वाला बाजार और नजरिया। खेती के पुराने माॅडल में, आधुनिक समय के अनेक यक्ष प्रश्नों के उत्तर छुपे हैं। पुराने समय में बुन्देलखंड की राखड और बेनूर मिट्टी को पानी उपलब्ध कराकर तत्कालीन राजाओं ने किसानों को इतना सक्षम तो अवश्य ही बनाया था कि वे पलायन नहीं करें। खडीन संरचना ने राजस्थान के पालीवाल ब्राह्मणों की रबी की खेती को पुख्ता आधार प्रदान किया था। मध्यप्रदेश के नर्मदा कछार के पश्चिमी जबलपुर, पूर्वी नरसिंहपुर और दमोह के कुछ हिस्सों में हवेली खेती की मदद ने उन्हें पुख्ता आर्थिक आधार प्रदान किया था। उसी व्यवस्था ने उन लोगों को स्थायी रोजगार उपलब्ध कराया था, जो आज पलायन को मजबूर हैं। कारण साफ है, सारे प्रयासों और वादों के बावजूद किसान से पानी दूर और खेती मंहगी हो रही है। शुभ-लाभ का लाभ बाजार में गिरवी रखा है। दिवालिया किसान किस को रोजगार देगा ? वह खुद असहाय है। उसकी खेती के शुभ-लाभ को देखना बाजार का दायित्व नहीं है। यह दायित्व है देश के विचारकों, योजनाकारों तथा प्रबन्धकों का। लाॅकडाउन ने उन सबसे सवाल किया है। गेंद उनके पाले में हैं। अब चर्चा को पर्यावरण पर फोकस करें।
लॉकडाउन की दो सप्ताह की अल्प अवधि ने पर्यावरण के क्षेत्र में वह चमत्कार किया है, जिसका सपना समाज 1986 से देख रहा था। गंगा एक्शन प्लान। गंगा की सफाई। यमुना की सफाई। अविरल गंगा। निर्मल गंगा और न जाने क्या क्या। वेसे तो सफाई का यह संकेत पिछले कुम्भ के अवसर पर प्रयागराज में दिखा था, पर उस समय समाज और मीडिया के साथ-साथ देश के वैज्ञानिकों, विचारकों, योजनाकारों तथा प्रबन्धकों से उसकी अनदेखी हुई। खैर, बीत गई सो बात गई। मौजूदा लाॅकडाउन में कारखानों के बन्द होने के कारण केवल उनके अपशिष्ट और रसायनों के नदियों में नहीं मिलने मात्र से गंगा यमुना जैसी विशाल नदियों की सेहत में सुधार दिख रहा है। उनकी जैव विविधता, उनकी अविरलता मानो सब कुछ लौटते दिख रहा है। इसके अलावा, देश की हवा की गुणवत्ता में सुधार दिख रहा है। हिमालय की चोटियों का दिखना प्रारंभ हो गया है। पशु-पक्षियों की आवाज सुनाई देने लगी है। यह चिमनियों और वाहनों के धुओं के कम उत्सर्जन का परिणाम है। दो सप्ताह में हुआ यह सुधार दर्शाता है कि देश की हवा और पानी को बेहतर बनाया जा सकता है। लक्ष्मण रेखा खींचने की आवश्यकता है। उम्मीद है कोई न कोई भागीरथ देश के वैज्ञानिकों, विचारकों, योजनाकारों तथा प्रबन्धकों को इस बदलाव से रुबरू करने की कोशिश अवश्य करेगा। मामला सही दिशा में काम करने का है। प्रोफेशनल इंटीग्रिटी का है। मामला, समाज को ही नहीं वरन अपनी आगामी पीढ़ियों को गुमराह होने से बचाने के लिए लक्ष्मणरेखा खींचकर अपनी जिम्मेदारी पूरा करने की है।