उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, पंजाब, प.बंगाल, उत्तर प्रदेश आदि राज्यों में लगभग एक लाख हेक्टेयर में लीची की खेती होती है। उत्तराखंड में लॉकडाउन का सीधा असर यहां के लीची के कारोबार पर पड़ रहा है। कुल लीची उत्पादन की 40 फीसद पैदावार अकेले बिहार में होती है। देश में यह एक हजार करोड़ रुपए से ज्यादा की सीजनल फल की खेती है। इस बार बगीचों के मालिकानों को व्यापारियों ने एडवांस में पैसे तो दे दिए लेकिन लॉकडाउन के कारण दोबारा उत्पादक क्षेत्रों में पहुंच नहीं पा रहे। इस बीच ओला-बारिश ने भी इस फसल को काफी क्षति पहुंचाई है। दरअसल, लोकल व्यापारी बाहर के बड़े व्यापरियों के बस एजेंट भर होते हैं। उनकी मदद से ही वे लीची खरीदते हैं, लेकिन बड़े व्यापारियों ने इस बार शुरू से ही हाथ समेट रखे हैं।
देहरादून की लीची की प्रदेश ही नहीं बल्कि पूरे देश में अलग पहचान है। दून समेत पहाड़ और अन्य प्रदेशों के लोग दून आने पर यहां की लीची जरूर खरीदकर ले जाते हैं। पहले लोग आम दिनो में एक-दो किलो लीची खरीद ले जाते थे। अब लॉकडाउन डरा रहा है कि पता नहीं, आने वाले दिनो में पैदावार का क्या होगा। लीची की खेती देहरादून में 1890 से ही हो रही है। हालांकि शुरुआत में लीची की खेती यहां के लोगों में उतनी लोकप्रिय नहीं थी पर 1940 के बाद इसकी लोकप्रियता जोर पकड़ने लगी। इसके बाद तो देहरादून के हर बगीचे में कम से कम दर्जन भर लीची के पेड़ तो होते ही थे। 1970 के दशक में देहरादून लीची का प्रमुख उत्पादक बन गया। देहरादून के विकास नगर, नारायणपुर, वसंत विहार, रायपुर, कालूगढ़, राजपुर रोड और डालनवाला क्षेत्र में लगभग 6500 हेक्टेयर भूमि पर इस स्वादिष्ट फल की खेती होने लगी लेकिन अब लीची की खेती में भारी कमी आई है। अब लीची की खेती लगभग 3070 हेक्टेयर भूमि पर ही होती है। उत्पादक स्थल पर ऊंचे ऊंचे भवनों की कतारें लग चुकी हैं।
यद्यपि पिछले दिनो मुख्यमंत्री अधिकारियों को निर्देश दे चुके हैं कि किसानों के व्यापक हित में आम व लीची के सीजन को देखते हुए इसे खरीदने वाले ठेकेदारों को भी आवश्यक चिकित्सा सुरक्षा जांच के बाद आवागमन की सुविधा प्रदान की जाए। मटर की खेती करने वाले किसानों के हित में फ्रोजन मटर की प्रोसेसिंग करने वाले उद्योगों को भी प्रोत्साहित किया जाए। भारत सरकार के निर्देशों के अनुरूप कृषि व खेती से संबंधित कार्यों को सुचारु रूप से संचालन की व्यवस्था की जाए।
उत्तराखंड के वरिष्ठ पत्रकार चंद्रशेखर बेंजवाल बताते हैं कि लीची मेरा प्रिय फल रहा है। इतना प्रिय कि पहले एक बैठकी में पांच किलो तक उदरस्थ कर लेता था और अब भी कम से कम दो किलो पर तो हाथ साफ कर ही लेता हूं। आज भी लीची खाने में तब तक परमानंद की प्राप्ति नहीं होती, जब तक उसका रस टपक कर कमीज या बनियान पर न पड़ जाए और हाथ लथपथ न हो जाएं। लीची की सुगंध बचपन में ही मेरे नथुनों में घुस गई थी। जब से होश संभाला खुद को लीची के बगीचों की खुशबू के बीच पाया। एक वक्त में तराई-भाबर के तीन शहरों देहरादून, कोटद्वार और रामनगर लीची के गढ़ हुआ करते थे। देहरादून की लीची तो ब्रांड नेम हुआ करती थी और दिल्ली-मेरठ के बाजारों में ठेली वाले सहारनपुर की लीची को भी देहरादून की लीची बताकर बेचा करते थे। कोटद्वार के जिस इलाके में हम रहते थे, उसके चारों तरफ लीची, आम के बगीचे ही बगीचे थे। हमारे मकान मालिक मेजर बड़थ्वाल का बगीचा, मिश्रा भाइयों के चार-पांच बगीचे, डिमरी का बगीचा, भवान सिंह का बगीचा, कंडारी का बगीचा, राणा का बगीचा। उधर, रोखड़ पार करके बालासौड़ में घुसे तो भट्ट का बगीचा, लाला मिश्री लाल का बगीचा, देवी रोड पर भी बगीचे ही बगीचे। बगीचे तो तल्ला काशीरामपुर, गाड़ीघाट, बद्रीनाथ मार्ग, पदमपुर सुखरो आदि में भी बहुत थे पर इन इलाकों पर दूसरे सूरमाओं का कब्जा था। एक-दूसरे के इलाके में अतिक्रमण करने पर गैंगवार का खतरा बना रहता था।
वह बताते हैं कि बसंत ऋतु आते ही इन बगीचों में खड़े पेड़ों में बौर आने लगती। इन बौरों पर भौंरे व मधुमक्खियां मंडराने लगते तो हमारे मन में भी उमंगें हिलोरें मारने लगतीं। बाल मंडली का हिसाब लगने लगता कि अबकी बार फलां के बगीचे में खूब लीची होने जा रही है। इसके साथ ही ये पता लगाया जाने लगता कि अबकी बार किस बगीचे का ठेका किस ने लिया है। तब कोटद्वार के बगीचा मालिक बाग का दो साल के लिए ठेका दिया करते थे। बगीचे नजीबाबाद के कुंजड़ा बिरादरी के मुसलमान लिया करते थे। ये कुंजड़े फसल के पकने पर उसे तोड़ कर बाजार में बेचने ले जाया करते थे। 1984 के बाद अधिकांश घरों की छतों पर टेलीविजन के एंटीना दिखाई देने लगे। दो से पांच एकड़ तक के ये बगीचे कट कर नगर और विहार बनने लगे थे। नई पीढ़ी को खेती-बाड़ी, बाग-बगीचे रास नहीं आ रहे थे। इन्हें बेचकर नव धनाढयों की जमात में शामिल होने के लिए धड़ाधड़ कालोनियां कटने लगीं। वैसे भी बसावट के लिए देहरादून, कोटद्वार, रामनगर, हल्द्वानी सबसे मुफीद जगहें, नतीजतन इन शहरों-कस्बों पर जनसंख्या का दोहरा दबाव पड़ने लगा। बगीचे कालोनियों में तब्दील होने लगे। देहरादूनी, गुलाबी, बेदाना, चाइना जैसी लीची की नस्लों और दशहरी, कलमी, बनारसी, लंगड़ा आमों के पेड़ धराशायी होने लगे। आज देहरादून में तो लीची के पेड़ काफी ढूंढने पर ही नसीब होते हैं।
वैसे भी इस बार बेमौसम की बारिश और ओलावृष्टि ने लीची के बागों को तबाह कर डाला है। लीची के बौर पर फंगस की आशंका है। यदि कोई बागान स्वामी अपने बगीचे में पेड़ों पर छिड़काव के लिए रसायन खरीदने निकल रहा है तो उसे बैरंग लौटना पड़ रहा है। आम व लीची की फसल के लिए तापमान 30 डिग्री सेंटीग्रेड से अधिक होना चाहिए, लेकिन बेमौसमी बारिश के कारण क्षेत्र का तापमान 25-26 डिग्री पर ही अटका हुआ है। बारिश के कारण आई नमी से दोनों ही फसलें खराब हो रही हैं।
उद्यान विशेषज्ञ डॉ. एसएन मिश्रा बताते हैं कि इस वक्त लीची में बौर खिलने के साथ ही फल तैयार होने की प्रक्रिया चल रही है। ऐसे में बारिश होने से यह बाधित हो जाती है और फसल खराब हो जाती है। प्रत्येक बागान स्वामी के पास घर पर ही कुछ ऐसे रसायन रहते हैं, जिनका वे अपने बगीचों में प्रयोग कर सकते हैं। लीची की फसल पर छिड़काव करने से पूर्व तय तय कर लें कि बौर में फल बना है अथवा नहीं। यदि फल नहीं बना है तो दवा के छिड़काव की जरूरत नहीं, लेकिन यदि फल बन गया है तो पेड़ों पर बाबस्टीन रसायन का स्प्रे अवश्य कर देना चाहिए। एक ग्राम बाबस्टीन में मोनोक्रोटोफाश दवा मिलाकर एक लीटर पानी में घोलकर उसका स्प्रे करने से फल में फंगस नहीं लगेगा।