पानी में आधा डूबा लकड़ी का एक मोटा टुकड़ा, जिसे जगह-जगह से दीमक खा चुकी थी, कुछ कीलें…बड़ी और मोटी टोपीदार, मेरे दिमाग में एक मूर्ख ख्याल आया कि यदि इन्हें लेंस से देखूँ तो यह कील एक काली छतरी जैसी दिखेगी, एक आदमी जो पानी में शव की तरह पड़ा था परंतु बार-बार थोड़ी-थोड़ी देर में हाथ चलाने से उसके मृत होने की पुष्टि नहीं हो पा रही, हो सकता है वह तैरने का आनंद ले रहा हो, मैंने उड़ती नज़र से किनारे की तरफ देखा, उस आदमी की दृष्टि में दीनता, बेबसी और बचाने की गुहार नहीं थी, एक आँख में अपरिचय की अकुलाहट भरी हुई थी और दूसरी, अरे उसकी दूसरी आँख तो है ही नहीं। वहां तो खून बह रहा है, तो हो सकता है इसकी आँख में कील गड़ गई हो, तैरते वक्त, चलते-चलते ही मेरे मुँह से शब्द फिसले। मुझे क्या लेना देना है, वह मरे या जिए; जाने कौन है?
‘नहीं सर ।’ जाने कहाँ से तभी एक ठिगने कद के आदमी ने तेज-तेज चलते हुए लगभग दौड़ते हुए जवाब दिया। उसने नीली कमीज़ और नीली पैंट पहनी हुई थी। ‘जय भीम’ उसकी कमीज़ के नेम टेब पर नजर पड़ी।
मैं हँस पड़ा, ‘कैसा अजीब संसार है, यहां आदमी कुछ भी नाम रख लेता है अपना। जयवीर, जयराम, जयेश, जयेन्द्र और…और, नहीं मुझे ऐसा नहीं सोचना चाहिए। यह तो हर आदमी की अपनी आज़ादी है, मुझे इसका ख्याल रखना चाहिए। उस पर इस तरह हँसना उसकी इज्जत पर हमला करने जैसा है। मुझे इस तरह मज़ाक नहीं उड़ाना चाहिए।’
‘नहीं, सर मेरा नाम दया काम्बले, गलती मत करिए, यह तो हमारा सैल्यूट, हमारा क्या कहते हैं अभिवादन, हाँ, मतलब नमस्ते जैसा, राम राम जैसा दलित समाज संघ से दया काम्बले।’ कहते हुए उस ठिगने व्यक्ति ने बेहिचक और बहुत ही बेतकल्लुफ होकर मेरी तरफ हाथ बढ़ाया, पर मैंने इस पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। मुझे याद आया कि पिता भी हमें यही अभिवादन सिखाया करते थे, पर बाहर की दुनिया इसे सुनकर हम पर हँसती, बाकी लोगों से, दूसरों की तरह अलग-थलग पड़ जाते हम, मुसलमानों की तरह, ईसाईयों की तरह, हमने नहीं सीखा, न मैंने न मेरे भाई ने। बस पिता की उपस्थिति में हम भय और लिहाज से बोलते या जवाब देते, पर पीठ पीछे; कभी नहीं। मैं भूल चका था, इन सब पुरानी बातों को।
‘ओह अभी समझा।’ कहकर उसने अपनी नीली कमीज़ से रगड़कर हाथ साफ किए। ‘सर आई एम दया काम्बले, मैकेनिकल इंजीनियर, वर्किंग फोर डिक्की, कॉमर्स चैंबर ऑफ दलित बिजनेसमैन।’ उस ठिगने व्यक्ति ने फिर हाथ बढ़ाया, पर मेरे हाथ पहले ही की तरह अब भी पेंट की जेबों में ठूंसे रहे। यह मेरी धृष्टता थी या शायद मेरी आज़ादी। मैंने उस ठिगने आदमी की तरफ से नजर फेर ली। लंबे-लंबे डग भर कर मैंने वहां से भाग जाना चाहा, पर ठिगना आदमी यानी वह दया काम्बले मेरा पीछा छोड़ने को तैयार नहीं था।
हालाँकि लगभग छह फुट लंबा कद और टाँगें शरीर के अनुपात में अधिक लंबी होने के बावजूद उस ठिगने आदमी से मैं पीछा नहीं छुड़ा पा रहा था। मैं अब लगभग दौड़ने लगा पर जब मैंने पाया कि वह ठिगना आदमी तब भी बराबर मेरे साथ-साथ चल रहा है तो यह देख मैं फिर धीमे-धीमे चलने लगा-भागने दौड़ने का कोई लाभ नहीं दिखाई दिया।
‘वह अपुन का आदमी है सर, उसकी आँख कील से नहीं फूटी, फोड़ी गई है, यह सजा दी है उसे मराठा लोगों ने, उसका नाम भैयालाल बौद्ध है, उसकी बेटी और पत्नी को भी मार दिया उन लोगों ने, चाकुओं से गोदकर मारा और पहले ज़बरदस्ती भी की उनके साथ, पोस्टमार्टम से पता चला सब, उसकी लड़की प्रियंका, उसने सबसे ज्यादा मार्क्स पाए बारहवीं में, पूरे जिले में, पर इससे क्या, चिढ़ गए सब, कोई खुश नहीं हुआ, उन सबका लड़का-लड़की कोई छोटा भी काम करे तो हम भी शामिल हों, ढोल बजाएँ, पटाखे छोड़ें, पर हमें बड़ा काम करने का हक नहीं।’
अपने चेहरे पर अपरिचय और अनसुनी करने के भाव ज्यादा गाढ़े कर दूसरी तरफ देखने लगा मैं। यह सब नहीं सुनना चाहता था मैं। इस रोने-धोने से मुझे सख्त चिढ़ हो गई है, यही सब मेरे पिता अपनी कहानी-कविताओं में लिखा करते थे और रोते थे। उन्हें इससे फर्क नहीं पड़ता था कि इससे हमारा मनोबल टूटता है। मैं अब पहले से और तेज चलने लगा। दया काम्बले को बराबरी बनाये रखने के लिए दौड़ना पड़ रहा था।
‘मैं आपको पहचान गया हूँ, आपके पिता कई उपन्यास, कहानियाँ और कविताएँ लिखे, अपने हमारे दर्द और शोषण पर, और उनकी आत्मकथा ‘मानुष’ कैसी प्रेरणादायक है।’
‘देखो भाई, मैं जरा जल्दी में हूँ।’ क्रोध प्रकट करते हुए दया काम्बले की तरफ मैंने आँखें तरेरी। दया काम्बले मेरी इस बेरुखी पर पल-भर को आहत दिखा।
‘कहाँ पहुँचना है आखिर आपको?’ मेरे मूर्ख क्रोध को नज़रअंदाज़ करते हुए दया काम्बले ने पूछा।
‘कहा जाना है, आखिर मुझे?’ इस एक छोटे से सवाल ने मुझे वाकई हैरान कर दिया। यह तीर की तरह सीधे मर्मस्थल में जा धँसा। आसमान में बादल घिरने लगे। ऊपर आकाश में छितरे छोटे-छोटे काले बादल एक जगह इकट्ठा होकर समूह में बँधने लगे।
‘आपके पिता बहुत जागरूक मनुष्य थे और लेखक तो बहुत ही कमाल।’ दया कांबले ने फिर मेरी निजता की दहलीज में छज्जे से छलाँग लगाई। ‘उन्होंने आपको महँगे स्कूलों और कॉलेजों में पढ़ाया, एम.बी.ए. कराया और आज आप हैं, एक सफल व्यवसायी…डिक्की के कंप्यूटर में आपका भी पूरा रिकॉर्ड है, फोटो है पर पता, हाँ बस पता नहीं है वहां, पते की जगह लिखा है, ‘एड्रेस नोट फाउंड’…पता अनुपलब्ध… और आज आप अचानक मुझे मिल गए; यह बहुत ही अच्छा हुआ न?’
‘आखिर कहाँ के लिए निकला हूँ मैं।’ सुनने और न सुनने के बीच कहीं, उधेड़बुन की सीवन में फँस चुका था मैं। ‘मैंने अभी दो घंटे पहले डिफेंस कालोनी के पिज्जा हट में अपना लंच लिया, बेटी का फोन आया था कि वह कल विदेश जाने से पहले की सारी ख़रीदारी कनॉट प्लेस में कर चुकी है। पत्नी बंगलौर से कल लौट रही है, फिजीकली चैलेंज्ड बच्चों का उनका म्यूजिकल प्रोग्राम बहुत सफल रहा।’
‘माफ कीजिएगा सर, मैं आपका नाम भूल रहा हूँ।’ दौड़ते-दौड़ते एकदम दया काम्बले मेरे सामने आ खड़ा हुआ तो मुझे अकबका कर रुक जाना पड़ा। ‘आजकल पता नहीं क्यों मेरे साथ ऐसे हो जाता है कि मैं अपने रोज के मिलने वाले साथी का नाम भी भूल जाता हूँ। एकदम अचानक जैसे कुछ ‘इरेज’ कर दिया जाए, मिटा दिया जाए।’
‘मेरा नाम…ऐं…उँ….ओह माय गॉड।’ अपने माथे को मैं उँगलियों से मसलने लगा, पर मुझे सच में अपना नाम याद नहीं आया, पलभर को मझे खीज हो आई। ‘कबीरदास कोली’ मुझे पहले पिता का नाम याद आया, ‘राहुल कोली’ नहीं नहीं मैंने उसे बदलकर ‘राहुल देव कोहली’ करा लिया था, बारहवीं में ही ताकि लोग मुझे पहचान न सकें। इस नये नाम से मुझे पंजाबी होने और बताने का गर्व और संतोष मिला। एक खोह मिली या फिर एक नक़ाब ताकि उन लोगों की ज़हरीली हँसी और बातों से बचा जा सके। ये कोली कौन होते हैं, हजार बार पूछे जाने वाले एक ही सवाल से मुक्ति मिली। दया काम्बले का मैं कोई जवाब नहीं दे सका।
‘कहाँ गया वह।’ मैंने पलट कर देखा, तो वह वहां दिखाई भी नहीं दिया। दया काम्बले शायद लौट गया। ‘चलो अच्छा हुआ, पीछा छूटा।’ मैंने चैन की साँस ली।
‘अब फिर मुझे यहां कोई नहीं जानता।’ मैंने छाती फुलायी, संतोष को भीतर जहाँ तक भरा जा सकता था, भरने की कोशिश की। छाती किसी गुब्बारे की तरह फूल गई और एक झूठा और निरर्थक बोध धुएँ की तरह फैल गया। एक लिजलिजे केंचुए के कुलबुल कुलबुल करते रहने जैसा ही था यह बोध, निष्क्रिय और निपट अकेला।
‘पिता!’ मेरी ठंडी साँस पर स्मृति से टूटकर शब्द आया, जैसे ग्लेशियर से टूटकर कोई बर्फ का टुकड़ा छिटका हो। उन्हें जो अच्छा लगा, वही किया उन्होंने, ये उनकी जिंदगी थी, सारी जिंदगी वे लिखते रहे दलित लोगों के दुखों पर, सपनों और अरमानों पर, कभी किसी की नहीं सुनी, न दादाजी की, न दादी की, न मेरी माँ की। कभी घर के काम में कोई सहयोग नहीं, ‘एक नयी दुनिया के निर्माण में लगा हूँ मैं’…हमेशा का एक ही उद्घोष…‘मुझे इस घर में कोई नहीं समझता।’ हमेशा की एक शिकायत, माई फुट। आपने किस को कब समझा, सबको अपनी शर्तों पर चलाने की कोशिश की, इस नयी दुनिया में परिवार कहाँ गया, घर का पता तक खो दिया उन्होंने, इस नयी दुनिया में। उनकी यह नयी दुनिया सिर्फ दलितों से भरी थी, उनके आपसी कलह और जूतम पैजार से भरी थी, उनकी इस दुनिया में मेरे दोस्त कमल सहाय की कोई जगह नहीं थी, इसमें मेरी भाभी और मेरी पत्नी भी नहीं रह सकती, उनको वहां की सदस्यता नहीं दी जाएगी क्योंकि वे पार्वती नायर और सम्भवा सेनगुप्ता हैं, कोली, जाटव, धानुक या बाल्मीकी नहीं। उन्होंने अपना जीवन जिया, अपने ढंग से, एकदम निराला, किसी पवित्र और अलक्षित ग्रह की तरह, जहाँ हम सवाल नहीं उठा सके कभी, वह जवाब ही नहीं देते थे, जाने कौन-से आसमान में उनका सिर होता था, हम कभी-कभी नीचे से चिल्लाते भी तो वहां तक आवाज़ न पहुँचती।
कभी-कभी वे वहां से नीचे उतरते और हमें पढ़ाते, हमें घुमाने भी ले जाते, कभी-कभी बाहर खाना भी खिलाते, माँ भी साथ होती पर बात वे सबसे ज्यादा हम दोनों भाइयों से करते, माँ से भी बातें करते, पर कुछ देर बाद ही चिढ़ जाते, ‘यू डोंट हैव कॉमन सेंस’ माँ से झल्लाकर वे कहते। ‘तुम एकदम गधी हो।’ माँ यह सुनकर मुस्करा देती तो मुझे गुस्सा आ जाता। यह सब घूमना-फिरना, हँसना, बोलना उनकी अपनी सहूलियत के हिसाब से था। हमें तो सिर्फ अनुसरण करना होता। वे हमारे पिता थे, हम उनकी ‘प्रजा’…प्रजापति थे वे या फिर वे एक उदार ‘डॉन’ की तरह थे।
फिर बाद में, जब पापा का सिर आसमान में किसी जगह होता तो मैं माँ से कहता कि, ‘तुम हँसती क्यों हो, जब वो तुम्हें गधी कहते हैं?’ माँ एकदम मुझ पर गुस्सा हो जाती। ‘तू कौन होता है हमारे बीच बोलने वाला? वो मुझे प्यार से बोलते हैं यह उनका तरीका है, मैं उन्हें पंद्रह साल से देख रही हूँ, तब तुम्हारा जन्म भी नहीं हुआ था, समझे।’ इसके बाद घंटा-दो घंटा माँ मुझसे बात नहीं करती। मुझे माँ पर भी गुस्सा आ जाता।
‘माँ को शायद गुलामी पसंद आ गई थी। पिता माँ के लिए एक मजबूत और सुरक्षित घेरा थे। पिता के बिना माँ जीवन के निर्वाह के बारे में सोच भी नहीं सकती थी। माँ ‘अन्नपूर्णा’ थी, ऐसा पिता, माँ का मजाक उड़ाते हुए अकसर ऐसा कहते। माँ से चार व्यक्तियों का खाना बनाने को कहा जाता तो वे हमेशा सात-आठ लोगों का खाना बना देती। खाना काफी बेकार चला जाता। हालाँकि खाना बनाने का एक यही काम ऐसा था जिसमें माँ सबसे कम गलती करती थी, बाकी हर काम वह कई-कई बार गलत करती और पिता से फटकार खाती, जैसे-जैसे हम बड़े हुए हमने यह सच्चाई भी जानी। पापा का यह दुख समझ आने लगा और माँ की विवशता भी, शायद एक आरोपित, अनमेल और अनिच्छित रिश्ता था पिता के लिए…और माँ के लिए तो कोई विकल्प ही नहीं था और मुश्किल यह थी कि दोनों को इस रिश्ते से निजात मिलना लगभग नामुमकिन था। वे दोनों विवाह के अटूट पाश में थे। मृत्यु ही इस अटूट की काट थी।
‘भूख लगी है’ सामने हल्दीराम कम्पनी का एक रेस्टोरेंट देखकर सहसा महसूस हुआ। मैं जल्दी से रेस्टोरेंट में घुसा। ‘एक आलू चाट और एक कोक।’ काउंटर पर सामने बैठे सेल्समैन को मैंने पैसे दिए। घड़ी में साढ़े चार बजने को थे। दीवार घड़ी उस सेल्समैन के ठीक पीछे थी और मैं आसानी से घड़ी को देख सकता था। यह सुनहरे फ्रेमवाली घड़ी थी जिसमें पुराने ढंग की घड़ियों की तरह पेंडुलम था जो इधर से उधर चक्कर काट रहा था।
‘सर।’ सेल्समैन ने बिल बढ़ाया। मैंने पैसे दिए तो सेल्समैन ने ‘थैंक्स’ कहा और बाकी पैसे लौटाते हुए एक बार फिर अदब से धन्यवाद कहा। जवाब में सेल्समैन की तरफ देखकर मैं सिर्फ हल्के से मुस्करा दिया। इसे अगर मेरी जाति के बारे में पता होता तो क्या यह मेरे साथ इसी तरह व्यवहार करता, शायद तब इसके चेहरे पर वही जहरीला भाव या कटाक्ष होता जो हर जगह मेरे पीछे भूखे भेड़िये की तरह लगा रहता है, पर हो सकता है यह उन दूसरों लोगों से अलग होता और इसे मेरे कुछ भी होने से कोई फर्क नहीं पड़ता और यह सिर्फ अपने धंधे से मतलब रखता। मैंने असहजता महसूस की। ‘यह व्यक्ति पहाड़ी होना चाहिए।’
मैंने सेल्समैन के नाक-नक्श देखते हुए सोचा। तभी मेरी नजर सेल्ममैन की वर्दी पर लटके नेम टेब पर गई-कृपाल सिंह बिष्ट। अपने सामान्य ज्ञान पर संतुष्टि हुई। फिर मुझे दुख हुआ कि इस सेल्समैन की भी एक जातीय पहचान है, जो पूँछ की तरह इसके नाम के साथ लटकी है और वह बाइज्जत मुकुट की तरह इसे धारण किये हुए है।
पर मैं खुद इस पहचान को छिपाता या बदलता हूँ मैं इस जाहिर नहीं होने देना चाहता, क्यों? मैं दूसरे काउंटर पर गया और वह बिल काउंटर पर खड़ी सेल्सगर्ल को दे दिया। सेल्सगर्ल ने बिल देखकर आर्डर सर्व कर दिया। उसकी वर्दी पर भी नेम टेब था, मैंने भरसक चाहा कि मैं उसके नेमटेब पर ध्यान नहीं दूंगा पर न चाहने हुए भी मैं उसका नाम पढ़ गया, आशा आहूजा। यहां भी एक मुकुट, मुझे क्षोभ हुआ।
‘उफ् यह कैसी दुनिया है, यहां कोई इंसान इस सबके बिना, सिर्फ अपनी पहचान, अपनी कमायी हुई पहचान के साथ नहीं हो सकता? ओह माय गॉड!’ खाने का मन न रहा, पर किसी तरह खाया, खाया क्या बस ठूंस लिया।
जब रेस्तराँ से बाहर निकला तो बादल गहरे हो गए। बीच-बीच में बिजली की चमचमाहट हो जाती। पाँच बजे ही अँधेरा हो गया। मैं अब जल्दी से घर पहुँच जाना चाहता था। ‘घर! लेकिन घर पर होगा कौन? एक नौकर, इस बारिश से बचने के लिए ही तो घर का आसरा चाहता हूँ न मैं।’ मैंने खुद से पूछा। ‘हाँ, नहीं घर में सुकून मिलता है, हाँ और बिल्कुल क्यों नहीं; पर इस बारिश से तो रेस्तराँ में रहकर भी बचा जा सकता है, मुझे अब घर चलना चाहिए, पर मैं निकला कहाँ के लिए था। शायद घर के लिए ही निकला होऊँगा।’
कुछ आगे बढ़ा तो मैंने पाया कि सड़क आगे धीरे-धीरे सँकरी होती जा रही है। मुश्किल से पचास-सौ कदम ही बढ़ा था कि सड़क एकदम सँकरी गली में बदलती गई। अब मैंने पलटकर देखा तो न तो वह चौड़ी सड़क दिखाई दी और न उसके किनारे बना हल्दीराम कम्पनी का रेस्तराँ, जहाँ पर अभी पाँच-दस मिनट पहले मैंने नाश्ता किया था। और यहां कुछ न था, बस सँकरी गलियाँ ही गलियाँ थीं, सैकड़ों गलियाँ। यह कोई पुराने शहर जैसा था जैसे पुरानी दिल्ली, पुराना लखनऊ, पुराना हैदराबाद एक बड़े रोड के जरा भीतर घुसते ही गलियों का अंतहीन जाल।
मैं एक में घुसता तो दूसरी पर पहुँच जाता। दूसरे से निकलता तो तीसरी पर पहुँच जाता। कभी-कभी घूमकर उसी जगह आ जाता, जहाँ से कुछ देर पहले मैं चला था। इस खेल में मुझे आनन्द आने लगा और अब जानबूझकर मैं कभी इस गली से निकलता और उस गली में जा घुसता और कभी सीधे चलता ही चला जाता।
सामने एक लैम्पपोस्ट दिखायी दिया, वहां तीन-चार गधे समूह में खड़े थे। मैंने सोचा कि यहां जरूर कोई कुम्हार या धोबी भी होगा। गधे बिना मालिकों के नहीं होते। मेरे खेल या खोज या फिर खेलनुमा खोज में इन गधों के घर ढूँढना शामिल हो गया। कुछ देर इसी खोजनुमा खेल में खर्च हो गया लेकिन कोई इंसान न दिखाई दिया और गधों को इससे कोई लेना-देना नहीं था, वे ऐसे खड़े थे, जैसे अनादिकाल से खड़े हैं और अनन्तकाल तक ऐसे ही खड़े रहेंगे। हाँ, यहां घर थे और घरों की तो गली में लंबी कतारें थीं, पर ये सब घरों का पिछवाड़ा था, इसका मतलब इनके आगे के हिस्से तक मुझे पहुँचना चाहिए।
मैं उत्साह से दोबारा इस नयी खोज में जुट गया; आखिर मैं थक गया और एक पुलिया पर बैठने को हुआ कि तभी वहां कुछ बंदर दिखाई दिए, घरों की छत पर, उनमें से दो-एक बंदरों ने मुझ पर कंकड़ फेंके और ‘खों-खों’ करके मुझे डराने की कोशिश करने लगे। तो क्या अब मैं मदारी की खोज करूँ? नहीं, बंदरों के होने के लिए मदारी का होना अनिवार्य शर्त नहीं है। मैंने भी बंदरों की तरह सिर खुजलाया और फिर दीवार पर चढ़ने लगा, लेकिन लगातार कोशिशों के बाद भी चढ़ न सका तो थक कर वापस आ पुलिया पर बैठ गया।
‘इमरती जैसी गलियाँ या फिर चक्रव्यूह जैसी हैं।’ मैं हँस गया। ‘मैं कहाँ फँस गया?’ पर शुरू मैं जैसा इसमें मुझे आनंद आ रहा था, वह अब कहीं खो गया। घूम-घूम कर वहीं पहुँच जाने से अब मैं खीजने लगा। अब मैं चाहता था कि इस भूलभुलैया से बाहर निकलूँ, पर यहां मुझे कोई इंसान नहीं दिख रहा था। खा जाने वाला एक खौफनाक एकान्त था और बाकी बंदर और गधे थे जो मेरी भाषा नहीं समझते थे और मैं उनकी जबान समझने में अक्षम था। उनके समूह के तौर-तरीकों से मैं एकदम अनजान भी था और न ही मेरी उनमें शामिल होने की, कोई ख़्वाहिश ही थी।
‘एक्सक्यूज मी मिस्टर।’ मैं जोर से चिल्लाया।
गली के दूसरे सिरे पर एक व्यक्ति जाता दिखाई दिया। वह व्यक्ति आवाज़ सुनकर भी रुका नहीं पर उसने अपनी गति जरूर धीमी कर दी जो इस बात का संकेत थी कि अगर कुछ पूछना है तो दौड़कर यहां तक आओ। मैंने इशारे को समझा और पुलिया से उठकर तेज कदमों से लगभग दौड़ते हुए वहां तक पहुँचा। यह एक भद्र व्यक्ति थे। उनकी ब्रांडेड शर्ट और ट्राऊजर के बीच एक महँगी टाई झूल रही थी। उनके चेहरे पर खासा रौब था। बरसों की कड़ी कोशिशों और सावधान संयम के बाद ही कोई व्यक्ति इसे प्राप्त कर पाता है।
‘क्या आप बता सकते हैं कि न्यू होराइजन प्लेस के लिए मुझे कौन से रास्ते से जाना होगा?’ मैंने उसी भाषा में यह सवाल किया जिसमें भद्रजन समझ सकते थे और प्रायः वे जिस भाषा में खाने-पीने और प्रेम तक की भी बातें करते।
उन सज्जन ने बड़ी उपेक्षा और लगभग घृणा से मेरी तरफ देखा…शायद उन्होंने अपनी पैनी नजर से मेरी बाहरी परतों को उधेड़कर भीतर देख लिया कि मैं उनके जैसा नहीं हूँ। इस तरह टोके जाने से भी उन्हें खासी तकलीफ़ महसूस हुई, उनकी निजता भंग हुई और इसका कष्ट उनकी सिकुड़ी आँखों और तनी भवों में दिखने लगा था।
‘आई एम रियली सॉरी मिस्टर।’ परंतु उस भद्र व्यक्ति ने विनम्रता से माफी माँगी और कहा कि वह ऐसी किसी जगह को नहीं जानते।
‘एक्सक्यूज मी।’ उस व्यक्ति ने दोबारा उसी विनम्रता से कहा और आगे बढ़ गए।
मैं खामोशी से उन्हें जाते हुए देखता रहा और अगली अनजान गली में घुस गया।
‘भाईसाब, ए-सिक्सटीन, न्यू होराइजन प्लेस बता सकते हैं आप।’ सामने एक मोटे पेट वाले आदमी को खड़े देखा तो मैंने फिर अपना एड्रेस पूछा।
‘देखिए, सर मैं एक सरकारी अधिकारी हूँ और इस समय मुझे सबसे पहले इस कर्मचारी को आज का काम समझा देना है।’ उसने हाथ में पकड़ा पतला-सा रजिस्टर दिखाया। ‘मैं बता सकता हूँ बिल्कुल बता सकता हूँ पर आपको थोड़ा इंतज़ार करना होगा। मुझे पहले इसे काम तक पहुँचा लेने दीजिए वरना ये फिर शराब पीकर कहीं पड़ जाएगा और आप जैसे लोग मुझे ऊपर से डाँट पड़वा देंगे।’
‘ये गली से सीधे जाकर दस गली सीधे हाथ पर छोड़कर ग्यारहवीं गली में मुड़ जाना, वहां से आगे एक बस स्टैंड… ।’
‘तू चल मेरे साथ पहले।’ उस मोटे पेट वाले सरकारी अधिकारी ने उस रास्ता बताने वाले मरियल से कर्मचारी को लगभग धक्का देते हुए कहा। इन्हें रास्ता मैं बाद में बता दूंगा, पहले तू वहां का काम पूरा कर, वहां नाली बंद पड़ी है कल से।’ मरियल कर्मचारी पर शब्दों के कोड़े चलाकर वह अधिकारी मेरी तरफ मुड़ा। ‘आप यहीं रुकिए मैं अभी आता हूँ और फिर आपको विस्तार से समझाता हूँ।’
मैं कुछ देर वहीं खड़ा रहा, अधिकारी के वापस लौटने का इंतज़ार करते हुए। पंद्रह मिनट बीत जाने के बाद भी वह जब नहीं आया तो मैं उसी रास्ते पर बढ़ चला जो उस मरियल कर्मचारी ने बताया था। अभी मैं पाँच-सात गलियाँ ही पार कर पाया था कि तभी सामने से एक आवारा कुतिया पूँछ हिलाती हुई मेरी तरफ बढ़ी। वह आकर मेरे पाँवों में लिपट गई और बेतरह पूँछ हिलाने लगी। कभी वह मेरे जूते चाटती, तो कभी अपनी कमर मेरी पैंट से रगड़ने लगती। मुझे यह खराब लगा और मैंने उसे भगाने की कोशिश की ‘इश्श…दूर।’ इस बेरुखी से वह आहत हो मुझ पर एकदम झपटी। एकदम झटके से मैं पीछे को हो गया। इस अप्रत्याशित घटना से मेरी रूह काँप गई। काफी कमजोर कुतिया थी वह। उसके दूध सूखे और लटके हुए थे। उसके पीछे-पीछे चार पाँच नवजात पिल्ले भी थे।
‘इसने अभी कुछ दिन पहले ही बच्चे दिए हैं शायद।’ पीछे हटते हुए मैंने सोचा और कुतिया के लपकने से पहले ही मुड़कर भागा। कुतिया भी पीछे दौड़ी और मेरी पिंडली पर दाँत गड़ाने की कोशिश की, पर पैंट का कपड़ा काफी मोटा होने से उसके दाँत भी भीतर तक गड़ नहीं पाए। मैं पलभर को रुका और जोर से एक लात उस बदकार आवारा कुतिया के मुँह पर मारी। कुतिया वापस पीछे की तरफ भागी और वहीं खड़ी होकर भौंकने लगी। उसके पिल्ले भी जितनी ताकत से भौंक सकते थे, भौंकने लगे। अब वहां चार-पाँच पिल्ले नहीं थे बल्कि पचासियों पिल्ले थे, जाने उसने भौंक-भौंककर अपनी भाषा में क्या संदेश भेजा था कि ये सब इकट्ठे हो गए। अजीब मिज़ाज है सामूहिकता का, समूह बनाकर किसी भी व्यक्ति को ठिकाने लगाया जा सकता है। मैंने सोचा कि काश मेरे पास वही जादू या जादुई बाँसुरी होती जो चूहों को भगाने वाले एक चमत्कारी युवक के पास कहानी में थी, तब मैं भी इन पिल्लों को कहीं नदी में डुबो आता, नहीं…नहीं जंगल में छोड़ आता। कुतिया से मैं निपट सकता हूँ लात मारकर या लाठी से भी पर इन मासूम पिल्लों पर लात या लाठी उठाने में मुझे काफी दुख होगा और शायद मैं न ही कर पाऊँ। इन्हें नयी तरबियत दी जा सकती है शायद अभी भी, ये अभी पके घड़े नहीं हुए हैं कि इन पर नयी मिट्टी न चढ़े।
पर अंत में जो मैं कर सकता था, वह यह कि जितना जोर से मैं भाग सकता था, भागूं और मैं भागा, पूरे दम से, सिर पर पाँव रखकर। वह सड़कछाप कुतिया भी भागी और पिल्ले भी पीछे-पीछे, पर जरा रुककर जैसे ही मैंने कुतिया को लात दिखायी, वह रुक गई और पीछे की तरफ भागी और उसके पीछे-पीछे पिल्ले भी भाग गए। अब मैं फिर उन्हीं चक्करदार गलियों में भटकने लगा। एक अदना-सी दुष्टा कुतिया ने मुझे मेरे घर तक पहुँचने का रास्ता गुम करवा दिया। मैं उसी मरियल कर्मचारी को ढूँढ़ने लगा। सामने सरकारी डिस्पेंसरी का बोर्ड दिखाई दिया तो मेरा ध्यान पैंट की तरफ गया। कुतिया के दाँत से पैंट फट गई थी। मैंने पैंट उठाकर पिंडली का मुआयना किया। दाँत गड़ा नहीं था, पर खरोंच थी हल्की-सी। मैं डिस्पेंसरी के भीतर गया। अंदर एक डॉक्टर किसी मरीज़ से बात करने में व्यस्त था। दरवाज़े पर नेम प्लेट पढ़ी- ‘पी.एल. मीणा’, ओह! एक और मुकुट।
‘मैं अंदर आ सकता हूँ?’ कमरे के दरवाज़े से ही मैंने पूछा।
‘अभी बैठिए प्लीज, मैं पेशेंट देख रहा हूँ।’ डॉक्टर मीणा ने दरवाज़े की तरफ आँख उठा कर भी नहीं देखा। मैं वापस दरवाज़े के पास रखी बेंच पर आकर बैठ गया। वहां मेरे अलावा एक भी मरीज़ नहीं था। तभी मैंने देखा कि एक और युवा व्यक्ति डिस्पेंसरी के गेट पर नमूदार हुआ और वहीं जा खड़ा हुआ, जहाँ अभी कुछ देर पहले मैं खुद खड़ा था। वह अंदर देख मुस्कराया और भीतर चला गया। वह युवा व्यक्ति मुझे कुछ पहचाना-सा लगा। ‘ये तो शैलेंद्र है शायद।’ मुझे याद आया कि वह एक कॉलेज में पढ़ाता है। एक बार उसके कॉलेज में मैं अतिथि के तौर पर व्याख्यान देने गया था, बिज़नेस एडमिनिस्ट्रेशन के विद्यार्थियों के लिए, वहीं उससे पहली बार मुलाकात हुई।
मैंने आवाज़ देना चाहा पर अब देर हो चुकी थी, वह भीतर जा चुका था। ‘शैलेंद्र। कमरे में कुछ देर रहने के बाद उस व्यक्ति के निकलते ही मैंने आवाज़ दी। वह व्यक्ति रुका और एकदम मुड़ गया। ‘अरे सर, आप यहां कैसे?’ शैलेन्द्र के चेहरे पर आश्चर्य और आत्मीयता थी। ‘अरे भाई, यह एक लंबी कहानी है, पहले ये बताओ कि यह डॉक्टर क्या तुम्हारा परिचित है।’
‘हाँ सर बिल्कुल, हमारे गाँव का है, वह पी.एल. मीणा है और मैं शैलेन्द्र मीणा।’ शैलेन्द्र ने तफसील से बताया।
परिचय का यह सूत्र सुनकर मैं भीतर से बुझ गया।
‘देखो, मुझे एक कुत्ते ने काट लिया है, एक इंजेक्शन लगवा लेना चाहिए और इन डॉक्टर साहब की बातें ही खत्म नहीं हो रही।’
‘सर, वह जो बैठे हैं वह हमारे गाँव के सरपंच हैं, धनीराम मीणा। मैं उनसे ही मिलने आया हूँ इतनी दूर।’ उसकी आँखों में खुशी चमकने लगी। ‘आप आइए अन्दर, आ जाइए।’ कहते हुए शैलेंद्र भीतर घुस गया। पीछे-पीछे मैं भी घुस गया। अन्दर जाकर उसने सारा हाल बताया तो डॉक्टर मीणा ने मेरा पाँव देखा।
‘घबराइए मत।’ डॉक्टर ने सलाह दी। ‘दाँत गड़ा नहीं।’ दवा लगाकर पट्टी करने के बाद एहतियातन इंजेक्शन भी मुझे लगा दिया।
‘ये राहुल देव कोहली साहब हैं, बिजनेसमैन हैं।’ शैलेन्द्र ने मेरा संक्षिप्त परिचय दिया।
‘बहुत अच्छा।’ डॉक्टर ने कहा और फिर वापस कुर्सी पर बैठ गया। इन सब बातों में डॉक्टर ने कोई रुचि नहीं दिखायी। ‘नहीं शैलेन्द्र, मेरा नाम सिर्फ राहुल देव है।’ मैंने शैलेन्द्र को ठीक किया। ‘जी बहुत अच्छा’ कहते हुए शैलेन्द्र ने मुड़कर डॉक्टर मीणा की तरफ देखा। ‘इनके पिता कबीरदास कोली बहुत बड़े लेखक थे।’ शैलेन्द्र रुका- ‘दलित साहित्य’ लिखा उन्होंने, कई राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय सम्मान भी मिले उन्हें।’
मुझे हैरानी हुई कि शैलेन्द्र भी मेरा इतिहास जानता है। मुझे खुशी और परेशानी दोनों हुई। पिता के मकबूल इनसान होने का यह सुख और दुख मेरे साथ बचपन से लगा रहा। जब बच्चा था और इसे समझता नहीं था तो मैं इस प्रसिद्धि से बहुत इतराता था कि मैं एक बड़े बाप का बेटा हूँ। पर धीरे-धीरे इस मकबूलियत के पीछे से उठता दमघोंटू धुआँ चारों तरफ फैलने लगा। तब मैंने जाना कि पिता का नाम तो बहुत है पर ताकत और असर में वे कहीं भी नहीं हैं। साहित्यिक दुनिया में भी उनके लिए आदर का भाव दिखावटी है। उन्हें यश मिल रहा था पर इस यश के नीचे का असली आधार ताकत नहीं था, गैर दलितों की उदारता और दया-भावना थी, दलित समाज का प्यार तो वास्तव में उनकी भावनाओं में अपनी जिंदगी के दुख-सुख देखना था।
दलित समाज के ये लोग अभी कहीं ताकत में नहीं थे। जहाँ आरक्षण की वजह से वे कुछ ताक़तवर हुए भी थे, वहां एक नया जातिवाद उनके अपने बीच खड़ा हो गया। उनके अपने अधिकांश लेखक और लोग अपनी-अपनी कोटरों को फायदा पहुँचाने की कोशिशों में लगे रहते। दूसरी दलित जातियों से वे सिर्फ इसलिए जुड़े थे कि कभी बाहरी हमला हो तो संगठित रहो के नारे का इस्तेमाल कर सकें और इन बाहरी हमलों में भी वे पहले पीड़ित की जाति की जाँच कर लेते कि उन्हें इसमें शामिल होना है या नहीं। दूसरी जाति वालों से अपने संघर्ष में वे खुद उनकी ही तरह जातिवादी और ख़ुदग़र्ज़ हो चुके थे। अपनी ज़रूरतों और ज़रूरतों से अधिक लालच और सुविधाओं के लिए इन्हीं गैर दलितों के दरवाज़ों पर ये खड़े रहते। संस्थानों और अकादमियों के बड़े पदों पर उन्हीं सवर्णों की चरण पादुकाएँ थीं।
मैं जहाँ भी जाता, पिता की ख्याति मुझसे पहले वहां पहुँच जाती और उस जगह से मुझे सिर्फ दिखावटी उदारता मिलती। यह उदारता एकदम कोरी होती, इस उदारता में कोई भौतिक सहायता कभी न होती, इसके विपरीत जहाँ काम होने होते थे, वहां भी अवरोध उत्पन्न हो जाते। हारकर मैंने हर वह जगह छोड़ दी, जहाँ पिता की लंबी छाया पहुँचती थी और बिज़नेस के क्षेत्र में आ गया।
‘शैलेन्द्र क्या तुम मुझे घर का रास्ता बता सकते हो, ए-सिक्सटीन, न्यू होराइजन प्लेस?’ अचानक मुझे रास्ते की बात याद आई।
‘सर, मैंने सुना जरूर है, पर मैं वहां कभी गया नहीं, मेरी दुनिया तो कॉलेज से घर और छुट्टी मिलते ही घर से गाँव में होती है।’ शैलेन्द्र ने इस बात को इस ढंग से कहा कि तीनों मीणा मित्र खिलखिलाकर हँस पड़े।
मैं सोचने लगा कि इस बात में इस तरह हँसने जैसा क्या था?
‘हाँ पर मैं आपको बस स्टॉप तक पहुँचा सकता हूँ, वहां से मैं अपने कॉलेज के लिए बस लूँगा।’
दोनों साथ-साथ चलते हुए बस स्टॉप पर पहुँचे। एक बस चलने को तैयार थी, दोनों जल्दी से उसी में चढ़ गए।
शैलेन्द्र ने बस में चढ़ते ही कंडक्टर से कहा, ‘डी.एस. कॉलेज…’ कंडक्टर ने टिकट काट दिया।
‘न्यू होराइजन प्लेस…’ मैंने भी पचास का नोट बढ़ाया।
कंडक्टर ने सीटी बजा दी। ‘हुरजन प्लेस ना जाती या’ कंडक्टर ने अपने अंदाज़ में कहा। बस रुक गई। मेरी आँखों में शायद सवाल को देखकर कंडक्टर ने फिर कहा, ‘सड़क्क पार से पचपन नंबर ले लो जी।’ मैं जल्दी-जल्दी उतर गया। बस से उतरते ही मैंने शैलेन्द्र की तरफ देखा जो बस के दरवाज़े पर आकर हाथ हिला रहा था। सड़क पार की। सड़क काफी चौड़ी थी। ट्रैफिक बहुत कम। इस तरफ बस स्टॉप पर मैं अकेला यात्री था। स्टॉप के किनारे एक तरफ एक मोची अपने काम में व्यस्त था।
वक्त काटने की गरज से मैंने मोची से थोड़ी ऐंठ में पूछा, ‘कितना कमा लेते हो दिनभर में।’ और दिन होते तो मैं मोची से बात भी न करता।
मोची ने आँख उठाकर तक नहीं देखा और अपने काम में लगा रहा। ‘दो हजार’, मेरे दोबारा पूछने पर मोची ने उसी ऐंठ में जवाब दिया।
‘दो हजार…एक दिन में।’ आश्चर्य से मेरी आँखें फैल गईं।
मोची ने मुस्कराते इस बार आँख उठाकर मेरी तरफ देखा, ‘क्यों साब, हम क्या सोच भी नहीं सकते?’
मोची का इस तरह मज़ाक करना, मुझे बुरा लगा। कोट की जेब में हाथ डालते हुए मैंने अपने मतलब की बात पूछना ठीक समझा, ‘न्यू होराइजन प्लेस के लिए यहां से बस मिल जाएगी न?’
‘वहां कोई बस जाती है?’ मोची की आवाज़ में तुनक थी। ‘सब कार वाले रहते हैं वहां। उसके पास जो अंबेडकर पुरी बस्ती है, वहां तक जाती है, वहां से पैदल या साइकिल रिक्शा पर जाना पड़ेगा आगे तो। इन जगहों पर सरकारी बसें नहीं जाती साब।’
मैंने झट सवाल जड़ दिया, ‘तुम गए हो कभी वहां?’
‘अपना क्या काम वहां, कई कस्टूमरों का काम आता है उसके आसपास से, उनके डरेवर और नौकर आते हैं।’ मोची काम भी करता जाता और बातें भी। उसका मुँह भी चलता जाता और हाथ भी।
किसी नासमझ की तरह मैंने पूछा, ‘क्या पैदल का रास्ता है?’ ऐंठ कहीं पीछे छूट गई। ‘नहीं जी, पैदल तो आधा घंटे से भी ज्यादा वक्त लगेगा। दूर है, यहीं थोड़ी रखा है। यह सड़क आगे जाकर दाएँ मुड़ जाएगी, फिर एक पुलिया आएगी, पर एक मिनट, एक मिनट, पुलिया तो टूट गई है।’ मोची को जैसे एकदम याद आया। ‘दूसरा रास्ता ये है जी कि आप दाएँ मुड़ों ही मत और सीधे चलते जाओ, आगे लगभग तीन किलोमीटर घूमकर पुलिया के दूसरे छोर पर होते हुए एक पक्का रोड आएगा।’ मोची ने मेरी आँखों में झाँका जिनमें दूरी के बारे में सुनकर हताशा तैर रही थी। ‘बस वही पक्का रोड दो किलोमीटर चलकर नव हरिजन पिलेस जाएगा।’
‘नव हरिजन पिलेस नहीं, न्यू होराइजन प्लेस।’ जगह का नाम इस तरह बिगाड़ कर लेना मुझे बुरा लगा। ‘होराइजन…होराइजन मतलब क्षितिज; जहाँ धरती और आसमान मिलते हैं!’
‘एक ही बात है जी।’ वह जूते की सिलाई में लगा रहा। ‘हरिजन क्या और होरिजन क्या, धरती और आसमान कभी मिलते हैं, बस भरम होता है जी मिलने का।’
‘ठीक है तुम्हें जो कहना हो कहो।’ मुझे लगा कि मैं इन बेपढ़े लोगों का उच्चारण नहीं सुधार सकता। ‘अनपढ़ जाहिल लोग।’
बस स्टैंड के दूसरे छोर पर चहलकदमी करता हुआ मैं बढ़ गया। तभी एक चमचमाती कार उस मोची की दुकान पर रुकी। ड्राइवर ने उतरकर पीछे का दरवाजा खोला तो भव्य रौब-दाब वाला एक अधेड़ आदमी बाहर निकला। वह फोन पर बात करते हुए टहलने लगा। ड्राइवर मोची के पास जाकर कुछ बातें करने लगा। ड्राइवर के हाथों में कुछ कपड़े और एक पोलीथीन बैग था जिसमें जूते भरे हुए थे। अधेड़ आदमी सबके अस्तित्व से अनजान फोन पर बातें किये जा रहा था। यह बातें देवी माँ के जगराते को लेकर थीं, वैष्णों माँ की यात्रा के बारे में थीं, सेल टैक्स कमिश्नर के बहुत ‘करप्ट’ होने को लेकर थीं, कल रात की शराब पार्टी की बुराई और अपने किसी कर्मचारी की खूबसूरत बीवी को लेकर थी।
जैसे ही उस अधेड़ आदमी की फोन पर बातचीत रुकी, मैंने बढ़कर पूछ ही लिया, ‘क्या आप मुझे न्यू होराइजन प्लेस तक छोड़ सकते हैं, आज लगता है, टैक्सी की हड़ताल है।’ यह सारी बात मैंने उसी भाषा और लहज़े में पूछी जो वह अधेड़ आदमी समझ सकता था, पर अधेड़ आदमी की भवें फिर भी सिकुड़ गई और माथे पर सलवटें उभर आईं।
‘असल में मेरी कार कहीं छूट गई है। याद नहीं आ रहा कहाँ।’ अधेड़ आदमी को आश्वस्त करने का मैंने प्रयास किया कि मैं भी एक भद्रजन हूँ कोई खामख्वाह का सड़कछाप नहीं। अचानक बात करते ही मुझे याद आया कि कार तो वर्कशॉप में है और साढ़े पाँच बजे मिलेगी। अरे हाँ, याद आया कि मैं सारा समय उसी के ठीक हो जाने के लिए काट रहा हूँ। ड्राइवर ने कहा था कि वह छह बजे तक पहुँच जाएगा कार लेकर। ‘त्वाडा नाव की है जी।’ अधेड़ आदमी की अचानक भाषा बदल गई। यह उसकी असली जबान थी। यह सुनकर मुझे अजीब लगा कि मैं सिर्फ उससे लिफ्ट माँग रहा हूँ और यह कमबख्त, ‘राहुलदेव…मेरा बिज़नेस है, इस शहर में।’ खैर, फिर
भी मैंने जवाब दिया। ‘और आपका क्या नाम है?’ मैंने भी उसकी ही तरह पूछा।
‘गुप्ता…लाला अशरफी लाल गुप्ता…जलन्दरवाले’-उसने गर्दन झुकाकर सिगरेट जलाई। ‘राहुलदेव तो ठीक है जी’ सिगरेट देसी ढंग से मुट्ठी में फंसाकर उसने जोर का कश लगाया, ‘अग्गे की है, पूरा नाँव दस्सो जी, होर किस चीज दा बिजनस है।’
‘बिजली के मीटर सप्लाई का और माफ कीजिए, नाम तो मेरा बस इतना ही समझिए।’ तनिक रोष भी आ गया मुझे कि लिफ्ट देने की एक मामूली सहायता के लिए भी वह मुझसे मेरा सरनेम पूछ रहा है।
‘तो सान्नू बी माफ कीजिए सच्च में, ए नव हरजन पिलेस असी भी नई जाणदे।’ वह अधेड़ आदमी बढ़कर कार में बैठ गया।
‘जाओ मरो तुम।’ मैंने देखा कि मोची और ड्राइवर हमारी ही तरफ देख रहे थे। फिर वे दोनों किसी बात पर हँस पड़े। उन्हें ऐसे हँसते देख मुझे खिसियाहट हुई। ‘क्या ये मुझ पर हँस रहे हैं?’ अपने कोट को मैंने झाड़ा और टाई ठीक की।
‘आप मुझ पर हँसते क्यों हो पापा?’ पुराने दिनों की किताब का एक पन्ना फिर खुल गया।
‘तुम सवाल ही ऐसे करते हो राहुल।’
पापा आज आसमान से नीचे उतरकर आए थे, धरती पर, घर में, माँ के पास, हमारे बीच। आज वे माँ के लिए साड़ी लाए और हमें हमारी पसंद की चीजें दिलवायी, हमें साथ ले जाकर, गुस्सा भी नहीं हुए। आज उन्होंने जरूर कुछ लिखकर पूरा कर लिया होगा। मैंने पक्का समझ
लिया।
‘पर आप ऐसे ही क्यों नहीं रहते हमेशा, खुश और पूरी तरह हमारे जैसे, हमारे साथ, आप जानते हैं। इससे आपकी सेहत भी ठीक रहेगी, डॉक्टर ने कहा था कि आपका ब्लड प्रेशर तभी ठीक रहेगा, जब आप ज्यादा चिंता नहीं करेंगे। माँ भी तभी खुश रहती है, जब आप हमारी तरह हँसते हैं, हमसे हमारे सुख-दुख की बातें सुनते और करते हैं, आपको ऐसा ही बने रहने में दिक्कत क्या है?’ पिता फिर ठठाकर हँस पड़े। साड़ी, माँ को बहुत पसंद आई। माँ ने आज शाम हम सब के लिए कई तरह के पकौड़े बनाए।
‘जिंदगी को मैं अपनी तरह से जीना चाहता हूँ राहुल।’ क्या मैं तुम्हें या घर के दूसरे लोगों को पैसे-धेले का अभाव होने देता हूँ? क्या मैं तुम्हारी जिंदगी में हस्तक्षेप करता हूँ? फिर तुम्हें मेरे निजी संसार पर एतराज या परेशानी क्यों है? मैं लिखता हूँ, मुझे जीने का यही तरीका अच्छा लगता है। मैं भीतर से बाध्य हूँ, मजबूर हूँ। इसे छोड़ दूँगा…तो मैं इतना भी नहीं हँस पाऊँगा, जितना हँस लेता हूँ। क्या तुम्हें अपने उदास और हताश पिता, अच्छे लगेंगे? माँ ने आते ही पिता का पक्ष लिया, ‘तुम तो छोड़ो जी इसकी बातें, खूब लिखो।’ पापा के पीठ पीछे हमेशा उनके लिखने-पढ़ने को कोसते रहने वाली माँ ने, उनके सामने आकर एकदम पाला बदल लिया। ऐसी, भोली भी नहीं थी माँ, अपने फायदे की बात पूरी समझती थी। वह इस बात से भी दुःखी रहती कि पिता से छोटी रैंक पर काम करने वालों के घर भी सोने-चाँदी से भरे हुए हैं। कई-कई कारें उनके पास हैं, शहर में कई जगह उन लोगों के पास जमीनें हैं।
पर पापा ने पूरे परिवार के कहने पर भी खुद को नहीं बदला। वे मरते दम तक लिख-लिखकर रोते-हँसते रहे और घर को फ़िजूल कागज़ों का गोदाम बनाते रहे। वे वैसे ही रहे जैसा वे चाहते थे। नौकरी में भी वे सदा एक दंडित अधिकारी बनकर रहे, रिश्वत न लेने के लिए बदनाम। वे बहुत भले आदमी थे। हम उनके भलेपन के सताए हुए लोग थे।
उस दिन वे काफी आवेश में थे, ‘तुमने अपना नाम बदल लिया है सर्टिफ़िकेट में।’ उन्हें पता चल गया कि मैंने अपना नाम राहुल कोली से बदलकर राहुलदेव कोहली कर लिया है। माँ पर भी उन्होंने अपनी भड़ास निकाली। ‘तुम्हारे ही ऐब सीख रहा है, पहचान से डरता है, कल को बाप से परेशानी होगी तो बाप भी बदल देना, इज्जत, स्वाभिमान कुछ नहीं, जो कुछ सिखाया सब व्यर्थ।’
और सच में सब व्यर्थ ही गया।
यह वही पिता थे, जो अपनी आज़ादी के तराने हमें सुनाते, माँ को भी, दादी और दादा को भी और तो और सारी दुनिया को लिखकर। कहाँ चली गई थी उस दिन उनकी निजता और निज संसार की वकालत, प्रत्येक व्यक्ति की अपनी आज़ादी और फैसले लेने का हक। बहुत कुछ टूटा उस दिन, कुछ सपने कुछ विश्वास और कुछ तरीके जीने के।
कार स्टार्ट होने की घर्र घर्र से मेरा ध्यान टूटा । मोची अपने काम में
व्यस्त था। कार आगे बढ़ गई।
मुझे कभी नहीं समझ आया कि आखिर पिता को भाई के एक दक्षिण भारतीय नायर परिवार की लड़की से विवाह करने पर भी क्यों आपत्ति थी? उन्होंने भाई से रिश्ता तोड़ने की बाक़ायदा घोषणा की। ‘इस लेखन से आप चाहते क्या हैं?’ मैंने पिता से एक दिन साफ- साफ पूछ ही लिया। ‘आखिर, एक ऐसा समाज ही न, जिसमें इनसान की जाति उसकी योग्यता की पहचान न हो, उसके गुण-दोष की परीक्षा उसकी जाति के आधार पर न हो, पर क्या आप आज वही सब नहीं कर रहे हैं? तरीका, आपका बेशक दूसरा है, उसके खिलाफ लड़ते हुए लेकिन कर आप भी वही रहे हैं।’ भाई के विवाह को तीन महीने बीत चुके थे। यह सब वह चुपचाप सुनते रहे। उन्होंने एक भी शब्द नहीं कहा।
‘आपको भाई के विवाह के मामले में दूसरे लोगों के तानों की चिंता है कि आपके अपने लोग क्या कहेंगे, समाज में आपको अपनी पहचान और प्रतिष्ठा का डर है, उन गैर दलित लोगों के मन में भी तो यही था और यही है। वे भी अपनी इज्जत और अपना धर्म बचाना चाहते हैं, आप दोनों में क्या फर्क है? मूल रूप में आप सब एक जैसे हैं। और कितनी बार, आखिर कब तक धर्म की दुहाई आप देंगे, याद रखिए सारी दुनिया इसी धर्म की मारी है, सारे फसाद की जड़ यही है। हिंदुओं से लड़ते हुए आप नये-नये धर्म लाते जाइए, सब इसी में घुल मिल जाएँगे एक दिन, जैसे पहले वाले सारे धर्म डूब गए। कहाँ गए बौद्ध, जैन और वीर शैव?
आपको नहीं लगता कि बाबासाहब के इन गरीब बन्दों को धरम का धागा नहीं…धन का धनुष चाहिए, तालीम के तीर और कनक का कवच चाहिए, इज्जत से जीने के लिए।’ बोलते-बोलते मेरी आवाज़ थरथरा गई। ‘बाबासाहेब ने तो संविधान में इनडिविजुअल की डिगनिटी की बात की है; क्या आप एकदम भूल गए पापा कि एक व्यक्ति की गरिमा, उसके प्राणों के बराबर होती है।’
पिता कुछ देर बैठे रहे। उम्मीद के उलट उन्होंने आज गुस्सा नहीं किया, वे चिल्लाए भी नहीं। टुकुर-टुकुर इधर-उधर शुतुरमुर्ग की तरह देखते रहे। फिर उठ गए। ‘तुम ऐसा कह सकते हो, तुमने इस सुनहरे उजाले में आँखें खोली हैं, हम अपनी इसी पुरानी पहचान में नये अर्थ भरना चाहते हैं ताकि हम अपनी पहचान के साथ रहें और कोई हमें बेइज्जत भी न कर सके। कभी सोचना यह भी।’ पिता के कहे ये शब्द इतने छोटे और पैने थे कि सीधे मेरी चेतना में जा धंसे।
‘पर आपका यह सब लिखना इस जातिवाद को और मजबूत करेगा।’ जाते हुए पिता की पीठ से मैंने कहा।
‘इसे क्या कम करेगा, तुम जान सको तो मुझे भी बताना, पर हाँ यह ठीक है कि तुम अपने लिए स्वतंत्र हो आज से।’ पीठ से उत्तर आया।
धीरे-धीरे चलते हुए मैं आखिर उस नहर तक पहुँच ही गया। उजाला अभी काफी था। तेज कदमों से मैं नहर के साथ-साथ चलने लगा। आसमान में बादल अब भी थे, पर पहले से कुछ छंट गए थे।
‘राहुल कोली साहब!’ मुझे आश्चर्य हुआ कि यहां इस एकांत में कौन मुझे पुराने और असली नाम से पुकार रहा है। आवाज़ की दिशा में मैंने पलटकर देखा। इतने सालों बाद किसी ने मुझे मेरे पुराने नाम से पुकारा। हैरानी मुझे खुद भी हुई कि आखिर मैं कैसे अपना पुराना नाम सुनकर पलट गया। वरना इतने सालों से नया नाम सुनते-सुनते इस पुराने नाम को ग्रहण करने की मेरी आदत भी छूट चुकी थी।
नहर में दूर से दया काम्बले एक लंबी-सी नाव खेता हुआ मेरी ही तरफ बढ़ा आ रहा था। नहर में कई छोटी-बड़ी नावें थीं। उन पर अलग- अलग रंग की पताकाएँ थीं और भिन्न भाषाओं के चिह्न अंकित थे। ‘ओह नो! यहां भी आ गया यह।’ दया के साथ नाव में एक घायल आदमी था जिसके माथे पर पट्टी बँधी थी। साथ ही तीन-चार लोग और थे। उनसे बचने के लिए मैंने और तेज कदम बढ़ाना शुरू कर दिया।
‘बहुत तेज चलेंगे तब भी नहीं पहुँच पाएँगे सर, साथ बैठ जाइए, हम आपको न्यू होराइजन प्लेस छोड़ देंगे। अँधेरा हो जाएगा, तब लूटपाट शुरू हो जाती है यहां। सब अपने ही लोग हैं। ये डॉक्टर साहब हैं, डॉ. धर्मपाल पिप्पल, यू.पी. से हैं।’
दया ने साथ बैठे एक व्यक्ति की तरफ हाथ से इशारा किया। एक चप्पू डॉ. पिप्पल चला रहे थे। दया ने नाव को किनारे लाने की कोशिश की ताकि मुझे भी साथ बिठाया जा सके।
नाव और मेरे बीच पानी में लकड़ी का एक मोटा टुकड़ा डूबा हुआ था, जिसे दीमक आधा खा चुकी थी, कुछ लंबी-लंबी मोटी कीले थीं जिन्हें लैंस से देखा जाता तो उनकी टोपी किसी छतरी जैसी दिखती पर वह आदमी अब वहां नहीं था जिसकी आँख से खून बह रहा था।
‘भैयालाल, जरा साब को हाथ दो।’ पट्टी वाले आदमी की तरफ दया काम्बले ने देखा। भैया लाल ने उठकर हाथ बढ़ाया तो साथ बैठे दो अन्य लोगों ने भी मेरी तरफ हाथ बढ़ा दिया।
मैंने आसमान की तरफ देखा। वहां सूर्य दूर तक कहीं नहीं था, परंतु उजाला बादलों के कोनों में सोने के बालू की तरह फैला हुआ था। नाव में इस तरफ दया की पुकार थी, भैयालाल और दूसरे साथियों के बढ़े हुए हाथ थे।
मैंने सोचा कि क्या अपना पता खोजने के लिए मुझे इस नाव में इन साथियों के साथ बैठना ही होगा? इन्होंने मुझे कभी नहीं दुत्कारा परंतु फिर भी आखिर इस पहचान से मैं क्यों भाग रहा हूँ? दूसरी पताकाओं वाली नावें कुछ और दूर चली गईं।
फिर तत्काल विचार आया कि क्या निर्वासन भोगते और अपना पता खोजते हम जैसे लोग भी कहीं-न-कहीं जरूर होने और बने रहने के लिए विवश और अभिशप्त हैं, कहाँ जाएँ आखिर हम?
और एकदम अंत में, मेरा ध्यान इस तरफ गया कि इस वक्त मैं किसी स्वप्न में तो नहीं हूँ या फिर क्या यह वाकई यथार्थ संसार है?
अपने इस अकेलेपन की भयावहता की तरफ मेरा ध्यान गया तो जैसे मेरी आँख खुल गई।
परिचय-संक्षेप अजय नावरिया
अजय नावरिया समकालीन कहानी का एक सुपरिचित नाम हैं। समाज के भेदभाव, गैर बराबरी के कथानक बड़ी सहजता से उनकी कहानियों में आते हैं। उनका जन्म 6 जून 1972 को कोटला मुबारकपुर (दिल्ली) में हुआ है। उनकी मुख्य रचना विधाएँ कहानी और उपन्यास हैं। जामिया मिल्लिया इस्लामिया, नई दिल्ली में असिस्टेंट प्रोफेसर नावरिया का साहित्य इडोनेशिया, चीनी, फ्रेंच, जर्मन, इतालवी और जापानी भाषाओं में अनूदित हुआ है।
मुख्य कृतियाँ – कहानी संग्रह : पटकथा और अन्य कहानियाँ, उपन्यास : उधर के लोग
सम्मान – सुधा स्मृति साहित्य सम्मान, हिंदी अकादमी, दिल्ली का साहित्यिक कृति सम्मान, भारत रत्न डॉ अम्बेडकर राष्ट्रीय साहित्य सम्मान
संपर्क – 9910827330