उत्तराखंड की संस्कृति जितनी समृद्ध है, लोक जीवन भी उतना ही भरा-पूरा। यहां लोक थात, लोक राग की दुनिया भर में गूंज रहती है। होली, दिवाली, मेलों, धार्मिक उत्सवों में इसकी हर वक्त झलक मिलती रहती है। कोरोना के दुख से इन दिनो पहाड़ी जीवन भी किंचित खिन्न-उदास है, जिसमें यहां के ढोल नगाड़ों के थाप कुछ वक्त के लिए मद्धिम जरूर हैं लेकिन ‘काफल ट्री’ में सुधीर कुमार लिखते हैं- उत्तराखण्ड की लोकसंस्कृति में लोक वाद्यों की एक समृद्ध परंपरा रही है। भाव राग ताल नाट्य अकादमी, पिथौरागढ़ द्वारा अपने यू ट्यूब चैनल से उत्तराखण्ड के लोक वाद्य कारीगरों के जीवन पर बनायीं गयी डॉक्यूमेंट्री फिल्म ‘लोक थात के प्रहरी’ को रिलीज किया गया है। भाव राग ताल अकादमी और इसके निर्देशक कैलाश कुमार उत्तराखण्ड की लोक कलाओं के संरक्षण-संवर्धन के लिए अपने सरोकारों के कारण जाने जाते हैं।
एक दौर में उत्तराखंड के हुड़का, ढोल-दमाऊ, डौर, हुड़की, सारंगी, दो तारा, एकतारा, मुरुली, जौंया मुरुली (अलगोजा), तुरही, रणसिंह, नागफणी, बिणाई, भौंकर आदि 2 दर्जन से ज्यादा वाद्ययंत्रों का इस्तेमाल किया जाता था। वक्त बीतने के साथ इनमें कई विलुप्त हो गए और शेष दुर्लभ।
इन वाद्ययंत्रों के साथ-साथ लोककला संस्कृति के कई रूप भी नष्ट होते चले गए। इसका एक प्रमुख कारण इन लोककलाकारों, शिल्पियों के खराब सामाजिक, आर्थिक हालात भी रहे. इनमें से अधिकांश उत्तराखण्ड की अनुसूचित जाति (शिल्पकार) से हुआ करते हैं। अपने पुरखों के बदतर हालातों को देखकर इनकी आने वाली पीढ़ियों ने इस काम से तौबा कर शहरों-कस्बों में मजदूरी कर लेना ज्यादा बेहतर समझा।
लोकसंस्कृति के इन वाहकों के एक हिस्से, लोक वाद्य शिल्पियों की छिपी हुई कहानी को सामने लाने की कोशिश करती है भाव राग ताल अकादमी की डॉक्यूमेंट्री ‘लोक थात के प्रहरी।’
एक छोटी सी कहानी में उत्तराखण्ड के ताल वाद्यों – हुड़का, दैन (नगाड़ा), डमर – को जनने वाले कारीगरों के श्रमसाध्य काम को बखूबी दिखाया गया है। इन लोक वाद्य कारीगरों को ये हुनर पीढ़ी-दर-पीढ़ी विरासत में मिलता है। डॉक्यूमेंट्री पिथौरागढ़ जिले के कुछ कारीगरों की कहानी कहते हुए इन वाद्य यंत्रों को बनाने की कठिन प्रक्रिया को भी समझाती चलती है। डॉक्यूमेंट्री के कथानक से गुजरते हुए हम इन कारीगरों के बदहाल और अमानवीय जीवन के साथ-साथ उत्तराखण्ड की लोकसंस्कृति की बदहाली को भी देख पाते हैं।
डॉक्यूमेंट्री देखकर दर्शक के सामने यह सवाल सहज ही उठ खड़ा होता है कि क्यों एक समाज के रूप में हम अपने लोक कलाकारों, शिल्पियों को सम्मानजनक जीवन भी नहीं दे पाए? क्या इस सबके पीछे कहीं हमारे खुद की लोककला-संस्कृति के लिए ख़त्म होते जा रहे सरोकार तो नहीं है?
हरीश कंडवाल लिखते हैं – उत्तराखण्ड संस्कृति मा ढोल अपणु अलग ही पछ्यांण च। ब्यो बराती, मांगलिक काज, ढोल बैगेर सुनपट् च। आज हम ‘रंत रैबार’ बटि आप लोगू समणि ढोल बारे मा लिखणा छव्टु सि प्रयास कन्नू छवां। उत्तराखण्ड मा ढोल अपणु कथा च , जू ‘ढोल सागर ‘नौं से जणे जांद। ढोल बजाण कि भाँति – भाँति कि कला हमर यखक औजी मा छिन। ढोलसागर पैलि भाग मा सृष्टि बणा कथा च , जैकू जागेश्वरी बुल्दिन। दूसर भाग मा ढोल बाबत अर वै बजाणै कला बड़ू सुन्दर ढंग मा लिख्यूं ये भाग तै ’चिष्टकला ढोलसागर’ नौं से जणे जांद। ढोलसागर ग्रन्थ बाबत माँ पार्वती बुल्द –
“दोपते उत्पन्न ढोले ददी द्वापत उत्पन्न दमामे कनक दमामे द्वीपते कनक”,
थर हरी बाजे किरणे मंडल ते चार किरणी बाजे सिदूं द्वापते,
सिदूं थर हरी बाजी न दुथरहीते सिदूं थर हरी बाजे ,
चौ दिशा की चार चासणा बाजी चार चासणी की चाखास ,
रणों बाजी चार चासणो की चार तेल वाले बाजी।
यनी ढोल बण बाबत लिख्यूं:-
” ढोल्या पारवती न बटोल्या विष्णू नारायण जी न गड़ाया चारे जुग ढोल,
मुडाया ब्रहमा जी न ढोल ऊपरी कंदोटी चढाया।
ढोल क मूल अर शाखा बाबत इन लिख्यूं चः
’आरे आवजी ढोली, ढोल मूल, पश्चिम ढोली ढोल की शाखा,
दक्षिण ढोली ढोल पेट, पूरव ढोली ढोल क आॅखा’’।
ढोल और नौं इन बतये गेनः- श्रीवेद, सतगणेश पासमतो, रणकोण् छणक, बेची गोपी, गोपाल, दुर्गा, सरस्वती अर जगती, बारह शर ढोल हुंद।
आवजा मूल अर कलाः- “मन मूले, पौंन कला, शब्द गुरू, सूरत चेला, ंिसहंनाद, शब्दली, आव, सरत, बसंत देश धरती छन। म्यार गौं अलेक कू नगर जमराजपूरी बसंते गाॅव।
चरी यूंगूं बाबत ढोलसागर बाबत लिख्यूं द्वापरा मानदाता, को बामदास, ढोली गगन को ढोलम तम शून्य शब्दम। त्रेता युगे- मध्ये महेन्द्र नाम राजा बिदिपाल दास ढोली काष्ट की ढीलम अविष्कार। कलियूगे मध्ये वीर विक्रमाजीत राजा अगवानदास ढोली अरू तत्र को ढोल वस्त्र को शब्दम पंच नामिंक नमो नमः ।
ढोलसागर मा ढोल बजाण कि चार शैली बतै गेन। अमृत, सिधू प्रराणी अर मध्यानि। पैल तीन शैली मा ढोलसागर मा क्वी खास बात नि लिखीं । आज बगत मा भगवानदास मध्यानी शैली रूपरेखा समळौण च, जैकि चार उप शैली इन छिंः- सूत्रिका, बांकूली, सेन्दुरी अर झाड़खण्डी। मध्यानी शैली कुच्छ जण्यां मण्या ताल इन छिंः-
बढै(बधाई) इ ताल कै भि मांगलिक काज शुरू कन्नू बगत बजै जांद। ये ताल मा इन शुभकामना दिये जांद कि यू जू मांगलिक काज च यू सुफल ह्वेन। उत्तराखण्ड मा मांगळ गीत अपणु अलग हि पछ्यांण रखदन। जनम से लेकि ब्यो तक सभी संस्कारू मा मागंळ गीत गये जांद, मागंळ गीत ताल इन चः-
ना ती ती ना धी धी घी ना, धा धी धी ना, धा धी धी ना।
धुयेंलः- या द्यवतों की पूजा कन्न बगत ताल च। ये ताल से उपास्य रौद्र रूप प्रकट हूंदं । या वाळ ताल नरसिंग जागर, घामद्यौ की चौरास, काली कि पूजा मा बजै जांद। जब लय शुरू ह्वेक द्रूत तरफ अग्न्या बढ़द तब येकू नौ ’चौरास’ अर लय अति द्रुत तरफ जांद तब येकू ’सुल्तान चौक’ बुल्दिन। इन मन्ने जांद कि ढोल बजाण मा अगर हुरसू (प्रतिस्पद्र्धा ) लगे, अर जै गौं मा भितकचौ द्यायी त उ पूर गौं खतम ह्वे जांद। तब वै गौं तै अनिष्ठ हूण से बचाण बाबत औजी दादा भैलचौक जरूर बजादिन। धंयेल बोल अर ताल इन चः-
झे ग झे तू झें गु त ग तु।
रहमानी तालः- इ ताल ढोल दमौं वाळ बरात दगडी बाटू पर लळद बगत बजादिन। उल्लास इ ताल मूल भाव च। पहाड़ू मा उंदरी उकाळी वाळ बाटू पर रहमानी ताल तीन ढंग से बजै जांद, सैन्वार, उकाळ अर उंदार। यूंक बोल अर ताल अलग अलग हुंद। जाणकार आदिम इन पता लगै द्यांद की बरात कख पर ह्वेली। अब जमन मा इन ताल बजाण वाळ औजी दादा कम हि रै गेन।
नौबतः- ढोलसागर मा लिख्यूं कि इन्द्र दरबार मा उद्दीमास मा नौबत बजै जांद छे। यू बौत पुरण च। इ ताल रात पैलि या दूसरू पैहर मा कै मांगलिक काज हुण बगत बजै जांद। बसंत ऋतु मा हुण वाळ नाच गाणा मा भि बजै जांद। गढवाळ कुमौ राजा दरबार मा नौबत बजै जाद छे। नौबत मा नौपतन अर बाईस पडताळ बजै जांद। नौपतन, नौ विधि अर बाईस पड़ताळ आठ सिद्धियूं अर चौदह भुवनों कि आवाज बतै जांद।
चरितालमः- ढोलसागर मा इतै शिवतांडव मा ही बजै संक्याद। येक उग्र रूप च। अब यू कखी नि बजदू अर ना क्वी बजाण वाळ रयूं। अब येक जगहा मा पण्डौ नाच हूंद। चरितालत बोल इन हुंद।:- झेगू तु झे झे, झे गु तु ग ता।
ढोल दगड़ी दमौ या कखी कखी येकुन रौंटळी भी बुले जांद। दमौं मा तीन बोल निकळदन द,ग, अर न। ई तीन्नी बोल ढोल कू झा, ता, झे, दगड़ी मिली की बोल तै पूर करदु। शब्द आखिर मा ढोल दगड़ी दमौ बटि जू कांसा बजै जांद वैक बोल इन हूंदः- दिन, गिननि, दि, दिननि दिन गिननिख् दिन गिननि, दिन गिन।
उत्तराखण्ड मा ढोल दमो अर डौरं थाळी हि जण्या मण्या बजाण वाळ वाद्य यंत्र च। जागर गीत अर मांगल गीत मा यूंते बजै जांद। यूंक बोल अर ताल कु्छ इन हुंद।
भगवती – जैकता तु जनकु जैक तातू जनकू।
द्रोपदी- जैकू जै ताड़ कू
भीमबाजा- गिजा गिजड़ी धिना गिता
अर्जुन – जैकता, तुजड़क जैनाताक
नकुल – जैकता तुजड़े
नरसिंह बाजा- जिकता, ताकड़ी डिमटा, टिकड़ी, धन्न, घिकड़ी टिंट तिकड़ी।
नागराजाः- ताक जैकतू ताजनकु।
हंत्या क बाजाः डिम डिम डिम डिम टि टिपड़ी।
आंछरीः- ढिक ढिम ढिमीम डगटि डिंग डग डिन।
उत्तराखण्ड मा जू गीत गये जंदीन उंक ताल कुच्छ इन हुंदीनः-
मांगलः- ना ती ती ना धा धी धी ना धा धी धी ना धा धी धी ना।
चैंफलः- धा धी धी ना ना ती ती ना।
बारामासा – धा धी धी ना ता ती ना।
गाथागीतः- धा धी ना ना ती ना।
देवार्चना- धा धी धी ना, ना ती ती ना।
(आज ढोलसागर वृतान्त हम आप समणि श्री दिनेश चन्द्र बलूनी जी कि पोथि “उत्तराचंल संस्कृति, लोक जीवन, इतिहास एवं पुरातत्व” बटि सहयोग लिणै छवां उंक हम भौत भौत आभार प्रकट करदां । )