हमारे देश में यह एक रवायत सी दशकों से चली आ रही है कि कभी विकास के नाम पर, कभी उत्पादकता के नाम पर तो कभी बेहतर ज़िंदगी के नाम पर किसान को खेती छोड़ने, उद्योगों के हाथ में जमीन और दूसरे संसाधन सौंप दिए जाने की कोशिश करते हुए खेतिहर को मजदूर की हालत में कर देने की कोशिशें जारी हैं। चालबाज सियासतदां कभी गांधी तो कभी किसी और को किसानों का हितैषी बताकर धनिक वर्गों की राह आसान करते रहे हैं क्योंकि उन्ही के भरोसे उनके राजनीतिक रोजगार फूलते-फलते आ रहे हैं। इसलिए अब साफ मानकर चलिए कि कहीं होना-हवाना कुछ नहीं है। सच पूछिए तो सारे तरह के राजनीतिक दिखावे उसी खतरनाक तिलिस्म का सिलसिला हैं, जो नेहरू के जमाने से चले आ रहे हैं।
आज के हालात में भी कृषि प्रधान देश होने के नाते हमारे यहां के किसान अपने-अपने राज्य की सहकारी संस्था (कोऑपरेटिव) बनाएं तो पूरे किसानी तंत्र की पहल उनके हाथ में आ सकती है। सच्चाई से बनाए गए ऐसे ढांचे में गरीब से गरीब किसान को फ़ायदा पहुंच सकता है। इससे सबसे ज़रूरी बात यह होगी कि किसान अपनी उपज का दाम खुद तय करेगा। सही या गलत, किसी न्यूनतम समर्थन मूल्य की जरूरत नहीं रह जाएगी। सरकार और उद्योग दोनों को किसान के तय किए हुए दामों पर खरीदना होगा। यदि उद्योग और जनता, किसान को उचित दाम दे दे तो किसानों को अपनी उपज सरकार को बेचने की मजबूरी नहीं रह जाएगी। और तब सरकारों को भी जरूरत से ज्यादा ख़रीदने की कोई मजबूरी नहीं रहेगी।
दरअसल, किसान वर्ग देश की आबादी का सबसे बड़ा हिस्सा है, इसलिए खुदगर्जी राजनेता अपनी अपनी पार्टियों की सियासत सुरक्षित और मजबूत करने के लिए किसानों को अपने अपने तरीके से गोलबंद करने में जुटे रहते हैं। कोई अपना घर-परिवार, रिश्ता-नाता मालदार बना लेने के बाद बेरोजगारों के नाम पर छाती पीटने लगता है, कोई किसानों के नाम पर घड़ियाली आंसू टपकाता दिखने लगता है। कितने दुखद और बेशर्म हालात हैं।
सरकारें भी राज करने की उसी अंग्रेज़ों रवायत की हमराह होकर रह गई हैं। तब से आज में अगर कुछ भिन्न है तो उससे निपटने का कोई भी कारगर तरीका ईजाद न हो पाना। यदि हम यह मान भी लें कि सरकारें किसानो को मदद करना चाहती हैं, तब भी सच यह है कि पैसे छाप कर- दाम के रूप में, खरीद के रूप में या फिर सीधे पैसे किसान के अकाउंट में भेज देने के रूप में निकालने वाला समाधान टिक नहीं सकता और यह कोई सम्मान जनक उपाय भी नहीं है. ऐसे में किसान हमेशा ही याचक और सरकारें दाता की भूमिका में रहेंगी। उधर, उद्योग किसानों के उत्पाद को कम से कम भाव में कच्चे माल के रूप में ले कर अपनी रोजी-रोटी चलाना चाहते हैं। जबकि भारत के पास ये अनुकूलता है कि यहां के लोगों को सम्मान जनक जीवन और रोजगार मिले तो उसे किसी बाहरी देश पर निर्भर रहने की जरूरत नहीं हो। देश की जनता ही भरपूर उत्पादन भी करे और उसका उपयोग भी।
सहकारी संस्था का काम यदि सिर्फ़ खरीद, बिक्री और फसल के दाम तक सीमित रखा भी जाय तो व्यावहारिक दिक़्क़त कहां हो सकती है यह भी सोचनीय है। आज सबसे बड़ी समस्या किसान एकता की है। अपने अस्तित्व के संकट की वजह से ही क्यों न हों, किसान साथ आते रहे हैं लेकिन यदि आस पास के राज्य इस बदलाव में नहीं जुड़ते हैं तो एक राज्य के दाम और दूसरे राज्य के दाम में बहुत फर्क आ सकता है। उद्योग और ख़रीददार भी जहां सस्ता मिलेगा, वहीं से लेंगे, इसलिए भी यह ज़रूरी है कि किसानों की एकता कायम हो सके।
नए कृषि बिलों पर हुए विवाद और सड़क से संसद तक सिर्फ और सिर्फ राजनीतिक फायदे के विरोध के बीच विपक्षी दलों ने जहां इन्हें काला कानून बताया है वहीं सरकार को भी इस कानून की कीमत अपने सबसे पुरानी सहयोगी पार्टी शिरोमणी अकाली दल को खोकर चुकानी पड़ी है। बिल को लेकर किसानों और विपक्ष का मुख्य आरोप है कि यह विधेयक धीरे- धीरे एपीएमसी (एग्रीकल्चर प्रोड्यूस मार्केट कमेटी) यानी मंडियों को खत्म कर देगा और फिर निजी कंपनियां मनमानी कीमत पर किसानों से उनकी उपज खरीदने को आजाद होंगी। मंडी खत्म होने की सूरत में किसानों को फसल का एमएसपी यानी न्यूनतम समर्थन मूल्य नहीं मिल पायेगा। इसी तरह कॉन्ट्रैक्ट फ़ार्मिंग आने से बड़े किसानों को तो फायदा हो सकता है लेकिन छोटे किसान
बड़े उद्योगपतियों के चंगुल में फंस जाएंगे।
सचाई तो ये है कि हमारे देश में लगभग 80 प्रतिशत छोटे खेतिहर हैं और कानून वाणिज्य और उद्योग मंत्रालय के अनुसार, भारत में करीब 58 प्रतिशत जनता कृषि उद्योग पर निर्भर है। धान का सीजन होने के कारण इन दिनो भारी मात्रा में किसान आढ़तियों के जरिए धान मंडियों में बेचने पहुंच रहे हैं। किसान कहते हैं – “हमारा और आढ़ती का मां- बेटी का रिश्ता है, सरकार उसे क्यूं तोड़ना चाहती है। जब भी हमें पैसों की जरूरत होती है, हम सीधे चले आते हैं और अगर मिल पर जाएंगे तो वह 15 दिन का समय देगा फिर पांच दिन के लिए और कहेगा, तब तक हमारा काम कैसे चलेगा। 90 प्रतिशत किसान आढ़ती को बेचना चाहते हैं तो सरकार को क्या परेशानी है। सरकार एमएसपी की गारंटी क्यूं नहीं देती। ये बस पब्लिक को गुमराह कर रहे हैं।”
आढती कह रहे हैं, “जिस भी देश में पहले इस तरह के बिल आ चुके हैं, वहां फसलों के रेट आज आधे हो गए हैं। ये किसान और आढ़ती दोनों के लिए गलत है। हम तो खत्म हो जाएंगे। दरअसल इस कानून का नुकसान ये है कि पहले तो प्राइवेट वाले अच्छे दाम में खरीद लेंगे लेकिन बाद में रूलाएंगे। जैसे- सेंपल टेस्ट करेंगे, फसल में कमी निकालेंगे। यहां तो सब तरह की खरीद लेते हैं वे नहीं खरीदेंगे।”