बाज़ार में आज ऐसी सैकड़ों दवाएं मौजूद हैं, जो जानवरों के ज़हर से ही तैयार की गई हैं। मिसाल के लिए टाइप-2 शुगर के मरीज़ों की दी जाने वाली दवा एनैक्सेटाइड गिला मॉन्सटर की लार से तैयार होती है। पुराने दर्द में आराम के लिए ज़िकोनिटाइड दवा दी जाती है। ये दवा घोंघे के ज़हर से तैयार होती है। हार्ट अटैक रोकने के लिए एप्टिफाइबेटाइड दवा का इस्तेमाल होता है, जो रैटल स्नेक के ज़हर से बनती है। कैप्टोप्रिल, एक जानवर से ली गई पहली दवा है, जिसे 1981 में अमरीकी फूड ऐंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन से मान्यता मिली थी। ये एक एंटी-हाइपरटेंसिव दवा है।
जब तक मेडिकल साइंस का आविष्कार नहीं हुआ था, इंसान पेड़-पौधों और जड़ी बूटियों से ही इलाज करता था। निएंडरथल्स मानवों ने भी चिनार के पेड़ की छाल का इस्तेमाल दर्द निवारक के रूप में किया था। जानवरों का भी उनके औषधीय गुणों के लिए शोषण किया जाता रहा है।
मिसाल के लिए चीन की पारंपरिक चिकित्सा में जानवरों की 36 तरह की प्रजातियों का इस्तेमाल होता रहा है। इसमें भालू, गैंडे, बाघ और समुद्री घोड़े तक शामिल हैं। इनमें से कई तो अब ख़त्म होने के कगार पर हैं। अभी पैंगोलिन को कोविड-19 के लिए ज़िम्मेदार माना जा रहा है लेकिन हाल के कुछ समय तक चीन में पारंपरिक चिकित्सा के लिए पैंगोलिन पालन होता था।
आयुर्वेदिक चिकित्सा में गठिया के इलाज के लिए सांप के ज़हर का इस्तेमाल किया जाता है। इसी तरह, अफ्रीका, दक्षिणी अमरीका और एशिया में टेरेंटुला नाम की ज़हरीली मकड़ी का इस्तेमाल कई तरह की बीमारियां ठीक करने में किया जाता है। इसमें दांत का दर्द और कैंसर जैसे मर्ज़ भी शामिल हैं।
हालांकि इन पारंपरिक उपचारों के समर्थन में कोई वैज्ञानिक सबूत नहीं है। इसी हफ़्ते वैज्ञानिकों ने ख़बरदार भी किया है कि अगर जंगली जानवरों का शोषण अभी भी बंद नहीं किया गया तो भविष्य में और भी कई महामारियों का सामना करना पड़ सकता है। इंसान हज़ारों वर्षों से पेड़ पौधों से दवाएं बनाता रहा है लेकिन जानवरों के संदर्भ में ऐसा करना ज़रा मुश्किल है। तकनीक की मदद से इस काम को भी आसान बना लिया जाएगा। बहुत-सी बीमारियां इंसान को जानवरों से मिल रही हैं तो इनका इलाज भी उन्हीं की मदद से किया जाएगा।
क्रमिक विकास का, जिसकी वजह से हमें जानवरों में ऐसे अणु मिल जाते हैं, जो इंसान के शरीर में भी पाए जाते हैं। इन अणुओं को ‘पेप्टाइड्स’ कहते हैं। घोंघे और मकड़ियों से लेकर सैलामैंडर और सांपों तक में ये पेप्टाइड्स मिल जाते हैं। पेप्टाइड्स प्रोटीन के रूप में ही होते हैं लेकिन बहुत छोटी श्रृंखला में। इन्हें हम ‘मिनी प्रोटीन’ कह सकते हैं। चूंकि वो एस्पिरिन जैसी दवाओं की तुलना में 10 से 40 गुना बड़े होते हैं. इसलिए, वो अपने टारगेट पर सक्रियता से काम करते हैं। इनके साइड इफ़ेक्ट भी नहीं होते। तकनीक की मदद से आज वैज्ञानिक बहुत आसानी से पता लगा सकते हैं कि किस जानवर के कौन से अणु से दवा बनाई जा सकती है।