वरिष्ठ पत्रकार सुरजीत सिंह बता रहे हैं कि इन दिनो प्रिंट मीडिया से आ रही खबरें भयावह हैं. प्रिंट मीडिया तबाह होने की कगार पर है. हिन्दी और अंग्रेजी दोनों. वहां काम करने वाले पत्रकार और गैर पत्रकारों से दनादन इस्तीफे लिखवाये जा रहे हैं. पर, खुद की तबाही की खबरें ही प्रिंट मीडिया से गायब हैं. शायद ही किसी अखबार ने अपने खराब होते हालात पर कोई खबर छापी है. सालों से जो मीडिया जिस सत्ता की प्रचार करता रहा, उस सत्ता ने इस संकट काल में मीडिया को कुछ भी नहीं दिया. जो खबरें हैं, इनमें कुछ पुष्ट हैं तो कुछ अपुष्ट. अंग्रेजी दैनिक टेलिग्राफ झारखंड में अब नहीं छपेगा. 31 मई को आखिरी अंक प्रकाशित होगा. जो पाठकों तक एक जून की सुबह पहुंचेगा. उसके बाद नहीं. झारखंड के 35-40 पत्रकार व गैर पत्रकार बेरोजगार हो गये हैं. यह खबर करीब एक सप्ताह पुरानी है.
27 मई की शाम खबर आयी कि अंग्रेजी दैनिक हिन्दुस्तान टाइम्स का पटना और पुणे संस्करण बंद होगा. अभी अंतिम तारीख का पता नहीं चला है. पर, यह जरुर पता चल पाया है कि इस ग्रुप के मैनेजिंग एडिटर सौम्या भट्टाचार्य, सीनियर एडिटर पूनम सक्सेना, मंजुला नारायण, पद्मा राव समेत करीब 150 लोगों को बाहर कर दिया गया है. यह संख्या एचटी मीडिया ग्रुप के अंग्रेजी संस्करण में काम करने वाले कुल लोगों में से करीब 27 प्रतिशत है. हिन्दी दैनिक राजस्थान पत्रिका के बारे में सूचना है कि वहां भी बड़े पैमाने पर पत्रकारों को इस्तीफा लिखवा लिया गया है. झारखंड-बिहार के हिन्दी अखबारों की बात करें, तो कई जिलों के कार्यालयों को बंद करने की तैयारी चल रही है.
देश के लगभग सभी मीडिया संस्थानों (हिन्दी, अंग्रेजी अखबार, टीवी चैनल्स या वेब पोर्टल) में सैलरी कट कर दी गयी है. कहीं 25 प्रतिशत तो कहीं 30 प्रतिशत. साथ ही यह भी बता दिया गया है कि इससे भी बुरी स्थिति हो सकती है. पर, यह क्यों हो रहा है. क्या मीडिया संस्थानों के मालिक दो माह में ही कंगाल हो चुके हैं. या आने वाले दिनों को लेकर अभी से तैयारी कर रहे हैं. कुछ लोग सवाल उठा रहे हैं कि वर्षों से कमाई करने वाले संस्थान क्या साल-छह माह भी बरदाश्त करने की स्थिति में नहीं है. इसे लेकर हमने कई मीडिया संस्थानों से बात की. जो तथ्य हैं, वह चौंकाने वाली हैं.
वह यह कि केंद्र व कई राज्यों की सरकारों ने इस सेक्टर को सिर्फ भगवान भरोसे ही नहीं छोड़ दिया है. बल्कि इस सेक्टर को बर्बाद कर देने की तैयारी कर ली है. शायद सत्ता पर आसीन लोग नहीं चाहते कि मीडिया, खासकर स्वतंत्र मीडिया का अस्तित्व रहे. इसी के तहत चरणबद्ध तरीके से मीडिया को दबाने का काम किया जा रहा है.
पता चला है कि अपनी प्रचार पर हजारों करोड़ रुपये प्रति वर्ष खर्च करने वाली केंद्र सरकार ने पिछले साल भर से अधिक समय से अखबारों को विज्ञापन का पेमेंट नहीं किया है. अखबार मालिक बार-बार आग्रह कर रहे हैं. मंत्री से, सचिव से अनुरोध कर रहे हैं कि विज्ञापन का पेमेंट कर दें. पर हर बार पैसे नहीं हैं का बहाना बनाया जा रहा है.
कोरोना संकट में केंद्र सरकार 20 लाख करोड़ रुपये के आर्थिक पैकेज का दावा कर रही है. पैकेज में मीडिया क्षेत्र को कहीं भी शामिल नहीं किया गया. कोई सब्सिडी या किसी तरह की मदद की बात पैकेज में नहीं है. दरअसल, सरकार ऐसा करके मीडिया संस्थानों को जंजीरों में जकड़ करके रखना चाहती है. ताकि सत्ता की कमियां अखबारों में ना छपे.
राज्यों की बात करें तो बिहार सरकार 60 दिनों में विज्ञापन का पेमेंट कर देती है. जबकि झारखंड सरकार ने अक्टूबर 2019 के बाद से विज्ञापन का पेमेंट नहीं किया है. यूपी, राजस्थान, गुजरात, मध्यप्रदेश समेत अन्य राज्यों में भी यही हालात हैं. क्या सरकारों का यह रवैया अमानवीय नहीं है. क्या मीडिया संस्थानों में काम करने वाले लोग इस देश के नागरिक नहीं हैं.
कोरोना संकट के बाद कॉरपोरेट विज्ञापन बंद हो गया है. बाजार बंद हैं, इसलिए बाजार से कॉमर्शियल विज्ञापन खत्म हो गया है. रियल इस्टेट खुद परेशान हैं, इसलिए यहां से भी विज्ञापन नहीं मिल रहा है. एजुकेशन सेक्टर का झुकाव ऑनलाइन एजुकेशन की तरफ बढ़ा है. इसलिए यहां से भी विज्ञापन में कमी आयी है.
इन सबके बावजूद, क्या मीडिया संस्थानों का इस तरह निष्ठुर होकर पत्रकारों को बाहर का रास्ता दिखाने को जायज कहेंगे. नहीं. मीडिया संस्थान व्यवसाय कर रहे हैं. वर्षों से कमाई कर रहे हैं. कोरोना काल में कमाई कम होगी. संभव है मीडिया संस्थानों को घाटा भी होगा. क्या अखबार बंद करने या पत्रकारों को बाहर का रास्ता दिखाने के अलावा कोई दूसरा रास्ता नहीं बचा है. रास्ता है.
लोग उसे मानने को तैयार भी हैं. लेकिन जब सत्ता निरंकुश हो जाये, सरकारें अमानवीय हो जाये और पूंजीपति का धर्म सिर्फ मुनाफा कमाना ही रह जाये, तो ऐसी ही स्थिति उत्पन्न होती है. इसे अब हमें स्वीकार कर लेनी चाहिये.