उत्तराखंड में कठबेल एक हजार से चार हजार फुट तक की ऊंचाई पर पाया जाता है। कठबेल के पेड़ प्रायः स्वयं उगते हैं और प्रकृति में अपनी उपस्थिति दर्ज करते हैं लेकिन, अब महाराष्ट्र में कई जगह इसे उगाया भी जाने लगा है। उत्तराखंड के किसान यदि दिशा में कोशिश कर कठबेल के खेती-बाड़ी करें तो इससे उनके साथ राज्य की आर्थिक में भी एक बड़ा योगदान हो सकता है। इस फल को मराठी में कोविट, गुजराती में कोथा, बांग्ला में कटबेल, कन्नड़ में बेलाऊ और तेलगू में वेलगा कहते हैं। संस्कृत में इसे कपित्थ कहा गया है। वनस्पति विज्ञानी इसे लिमोनिया एसिडिसिमा कहते हैं। और, यह नाम भी पौधों के प्रख्यात पुरोहित कार्ल लिनियस ने रखा था। अंग्रेजों ने शायद बंदरों को कठबेल के फल खाते हुए देखा होगा, तभी तो उन्होंने इसका नाम मंकी फ्रूट रख दिया! वैसे अंग्रेजी में इसे वुड ऐपल भी कहते हैं।
बेहद कम पानी और बेहद विपरीत परिस्थितियों में भी आसानी से विकसित होने वाले कठबेल के बारे में बहुत कम लोग जानते हैं। इसका पेड़ बिना ज्यादा मशक्कत के अपने आप उग जाता है, लेकिन इसे विडंबना ही कहा जाएगा कि इसके प्रति लोगों की उदासीनता के चलते यह प्रजाति तेजी से खत्म हो रही है। इसके औषधीय गुणों से भी लोग परिचित नहीं है, जिसकी वजह से उत्तराखंड का यह वृक्ष अपने तमाम गुणों के बावजूद लोगों के दिलों में जगह नहीं बना पाया है। सामान्यत: यह शुष्क स्थानों पर उगने वाला फल है। यह बहुत अधिक तापमान पर भी पुष्पित-पल्लवित हो जाता है। सभी तरह की मृदा में लगाया जा सकता है। सूखे क्षेत्रों में आसानी से पनप जाता है। पौधा संभल जाने के बाद बहुत कम देखभाल की जरूरत पड़ती है। 5-9 सेमी परिधि वाले इसके गोल फल अत्यंत पौष्टिक होते हैं। कच्चे पर खट्टे और पकने पर मीठे होते हैं। दोनों को ही चाव से खाया जाता है।
कठबेल के कच्चे फल में पके फल की अपेक्षा विटामिन सी और अन्य फ्रूट एसिड की अधिक मात्रा होती है। बीज में प्रोटीन ज्यादा मात्रा में होता है। बीज में सभी आवश्यक मिनरल्स पाए जाते हैं। गूदे में कार्बोहाइड्रेट और फाइबर होता है। विटामिन सी सहित आयरन, कैल्शियम, फॉस्फोरस और जिंक भी पाया जाता है। यह प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ता है। पाचन क्रिया को अच्छा बनाये रखने में सहायता करता है। पका हुआ फल शरबत बनाने के काम आता है, जो शरीर के तापमान को नियंत्रित करने में सहायक होता है। इसके पाउडर को औषधि के रूप में उपयोग किया जाता है। यह फल कोलेस्ट्राल तथा ब्लड प्रेशर को नियंत्रण करता है। मधुमेह में रामबाण साबित होता है।
कठबेल (कपित्थ) का गणेश वंदना में जिक्र आता है। गणेश वंदना के अनुसार, कपित्थ फल गणेश जी के प्रिय फलों में से एक है। पुण्यक वनस्पति तंत्रम के अठारहवें अध्याय में कठबेल के बारे में एक अद्भुत बात बताई गई है। इस शास्त्र के अनुसार, हाथी अगर यह फल साबुत खा जाए, तो अगले दिन उसके मल में साबुत फल ही मिल जाएगा, लेकिन फोड़कर देखने पर उसके अन्दर का गूदा गायब मिलेगा। साहित्यकारों ने भी कठबेल की विशेषताओं को रेखांकित किया है।
कठबेल औषधीय गुणों का भंडार है, जिसकी पुष्टि विभिन्न समय में कई अध्ययनों द्वारा की गई है। 1996 में प्रकाशित द एनसाइक्लोपीडिया ऑफ मेडिसिनल प्लांट्स के अनुसार, कठबेल में पाए जाने वाले अम्ल, विटामिन और खनिज लिवर टॉनिक का काम करते हैं और पाचन प्रक्रिया को उद्दीप्त करते हैं। 2006 में प्रकाशित पुस्तक फ्लोरा ऑफ पाकिस्तान के अनुसार, कठबेल के कच्चे फल के गूदे का इस्तेमाल दस्त के उपचार में किया जा सकता है। रिसर्च जर्नल ऑफ फार्मास्यूटिकल, बायोलॉजिकल एंड केमिकल साइंसेस में वर्ष 2010 में प्रकाशित शोध में भी इस बात का जिक्र है।
ट्रॉपिकल जर्नल ऑफ फार्मास्यूटिकल रिसर्च में जून 2012 के अंक में प्रकाशित शोध के अनुसार, कठबेल में स्तन कैंसर की कोशिकाओं को फैलने से रोकने की क्षमता है। वर्ष 2009 में डेर फार्मासिया लेत्ते नामक जर्नल में प्रकाशित एक अध्ययन बताता है कि कठबेल में मधुमेह की रोकथाम की भी क्षमता है। कठबेल की स्वादिष्ट चटनी इस तरह बनाई जा सकती है। कठबेल को तोड़कर उसके गूदे को निकाल लें। अब गूदे में से बीज को अलग कर दें। इसके बाद एक बर्तन में तेल डालकर धीमी आंच पर रखें। तेल के गर्म होते ही इसमें सरसों के दाने डालें। जैसे ही सरसों के दाने चटकने लगें, इसमें मेथी दाना, हींग, सूखी लाल मिर्च और हरी मिर्च मिलाकर भून लें। अब इन मसालों को स्टोव से उतारकर ठंडा होने दें। इसके बाद मसाले को पीसकर इसका पाउडर बना लें। अब इसमें कठबेल का गूदा और नमक मिलाएं और दोबारा दरदरा पीस लें। कठबेल की चटनी तैयार है। इसे रोटी या परांठे के साथ परोसें।