भारत में कोरोनावायरस के चलते 25 मार्च को लॉकडाउन लागू हुआ और अप्रैल तक 12 करोड़ भारतीय अपनी नौकरी गंवा चुके थे। मई में हुई एक नेशनल एम्पलॉयमेंट स्टडी के मुताबिक पुरुषों की तुलना में महिलाओं ने ज्यादा नौकरियां खोई हैं। नौकरीपेशा भारतीयों में भविष्य को लेकर भी महिलाएं ही सबसे ज्यादा चिंतित हैं। लॉकडाउन के दौरान भारत में अरैंज मैरिज में काफी इजाफा हुआ है। परिवार इन शादियों को बेटी के भविष्य की सिक्योरिटी के तौर पर देखते हैं। भारत की कई बड़ी मेट्रिमोनी वेबसाइट्स ने पाया है कि लॉकडाउन के बाद शादी के रजिस्ट्रेशन्स 30 प्रतिशत बढ़े हैं।
भारत में महिलाओं की शादी की वजह से नौकरी नहीं जाती है, लेकिन इससे आजादी को फर्क पड़ता है। महिलाओं को गांव से बाहर जाना और नौकरी करना मुश्किल हो जाता है। भारत में महिलाओं के रोजगार पैटर्न पर रिसर्च कर रही येल में इकोनॉमिक्स की प्रोफेसर रोहिनी पांडेय बताती हैं कि दोबारा काम पाने के लिए प्रवासी महिला मजदूरों को संघर्ष करना पड़ सकता है। कई महिलाएं अपने माता-पिता को शादी न करने और नौकरी करने गांव से बाहर जाने के लिए चुनौतियों का सामना करती हैं।
भारत में 2005 से 2018 के बीच महिला श्रमिकों की साझेदारी 32 से 21 प्रतिशत पर आ गई है। यह दुनिया के लोअर रेट्स में से एक है। हालांकि इस दौरान पुरुषों का आंकड़ा भी गिरा है, लेकिन महिलाओं की तुलना में यह काफी कम है। अर्थशास्त्रियों के अनुसार, इसका एक कारण सांस्कृतिक भी है। क्योंकि भारत में इकोनॉमी बढ़ गई है और लोग महिलाओं को घर में रख पा रहे हैं। ऐसे में यह एक सोशल स्टेटस बन गया है।
कुछ अनुमानों के मुताबिक भारत की इकोनॉमी इस साल 5 प्रतिशत तक गिरेगी। शायद यह आजादी के बाद सबसे बुरी गिरावट होगी। पॉलिटिकल साइंटिस्ट स्वर्णा राजगोपालन इस बात को लेकर काफी चिंतित हैं। वह कहती हैं कि हम आज भी पुरुष को परिवार में मुख्य कमाने वाला समझते हैं। अगर यह बात हमें दूसरों के जिम्मे करना पड़ा तो महिलाएं अपनी नौकरी खो देंगी। फिर इससे फर्क नहीं पड़ता कि उन्हें नौकरी की कितनी जरूरत थी या वे कितनी मेहनत करती हैं।
भले ही भारत में आर्थिक स्थिति को संभालने के लिए लॉकडाउन हटने लगा है, लेकिन कई महिलाओं को अपनी आर्थिक आजादी दोबारा पाने का डर सता रहा है। प्रवासी मजदूरों की मदद करने वाले एनजीओ के चेयरमैन हेमंत कुमार बताते हैं कि अपने गांव वापस पहुंचने के बाद कुछ ही महिलाओं ने उनका फोन उठाया। कुछ ने उन्हें कहा कि परिवारवालों ने वापस नौकरियों पर जाने के लिए मना कर दिया है। इकोनॉमिस्ट्स ने अनुमान लगाया है कि यह दौर काम करने वाली महिलाओं के भयानक रुकावटें ला रहा है। हाल ही में आई संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट बताती है कि महामारी ने न केवल लैंगिक असमानता बढ़ाई है, बल्कि दशकों बाद मिली काम की कामयाबियों को भी चोट पहुंचाई है।
इंटरनेशनल लेबर ऑर्गेनाइजेशन के मुताबिक 35 प्रतिशत पुरुषों की तुलना में 41 फीसदी महिलाएं महामारी के दौरान काम खोने के रिस्क वाले सेक्टर्स में काम कर रहीं थीं। जब पश्चिम अफ्रीका से इबोला के बाद क्वारैंटाइन उपाय हटाए गए, तो महिलाओं की फिर से जीवनस्तर सुधारने की रफ्तार पुरुषों के मुकाबले काफी कम थी। महिलाओं को फिर से लोन लेकर बिजनेस शुरू करने में काफी वक्त लगा।