देश की राजधानी से महज 35 किलोमीटर दूरी पर बसे नोएडा के दयानतपुर गांव की तस्वीर पूरे देश में खेती-बाड़ी के ताज़ा हालात को दर्शाती है. यमुना एक्सप्रेस वे के किनारे बसा ये गांव सड़क से गुजरते हुए खूबसूरत दिखता है. इन दिनों ज्यादातर खेतों में फसलें लहलहा रही हैं. कई खेतों में सरसों के फूल भी दिखते हैं. युवा ग्रामीणों के चेहरे भी खिले खिले नज़र आते हैं. उनमें से कुछ ब्रांडेड कपड़े भी पहने दिखते हैं लेकिन जब बात खेती की होती है तो क्या युवा और क्या अधेड़, सभी शिकायत का पिटारा खोल देते हैं.
एक्सप्रेस वे के बिल्कुल करीब से गुजरने वाली सड़क पर एक बैलगाड़ी में सवार धर्मवीर चौधरी अपने बेटे के साथ खेतों की ओर जा रहे हैं. उनके परिवार के पास संयुक्त तौर पर कुल साठ बीघे ज़मीन है. ज़मीन की कीमत आसमान पर है लेकिन बात जब खेती से कमाई की होती है तो धर्मवीर कहते हैं, “हर तरफ दिक्कत ही दिक्कत है. ” धर्मवीर को शिकायत है कि उनके खेतों तक बिजली की पहुंच नहीं है. गेंहू की फसल को पांच बार पानी लगाना होता है और फसल की सिंचाई के लिए उन्हें हर बार इंजन (जनरेटर सेट) का सहारा लेना होता है. धर्मवीर पर करीब पांच लाख रुपये का कर्ज़ है और वो चाहते हैं कि सरकार की ऋण माफी योजना में उन्हें भी लाभ मिले. वो अपने तीन बच्चों के लिए खेती से इतर रोजगार भी चाहते हैं. धर्मवीर सीधे कहते हैं, “एक, दो लाख रुपया माफ है जाए. कोई और नयो काम है जाए. ”
बस्ती की तरफ जाने वाली सड़क पर थोड़ा अंदर गांव प्रधान बीना देवी मिलती हैं. वो अपने बेटे मनोज के साथ एक भैंसगाड़ी पर बैठकर घर की तरफ लौट रही थीं. बातचीत की शुरुआत में बीना देवी को लगता है कि मुद्दा उनके प्रधान होने से जुड़ा है. थोड़े संशय के साथ वो कहती हैं, “हमने गांव का पैसा गांव में लगा दियो, हमने कुछ ना लियो. (हम) खेती में मेहनत करें और मेहनत का ही खाएं.” खेती के मुद्दे पर वो कुछ कहना तो चाहती हैं लेकिन फिर शब्दों को रोक लेती हैं. बीना देवी प्रधान हैं लेकिन वो जाहिर करती हैं कि उन्हें बाहर की दुनिया के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं है. वो कहती हैं, “मैं कहां बाहर जाऊं ? मोय का पतो, बालकन ने ही पतौ है. प्रधानी तो मेरे बालकन ने मेरे आदमी ने ही चलाई.” इस बीच उनके बेटे मनोज कई बार अपनी राय रखने को बेताब दिखे. बीना देवी के चुप होते ही वो कहते हैं कि भले ही पश्चिमी उत्तर प्रदेश के इस हिस्से के किसान खुशहाल माने जाते हैं लेकिन फिलहाल ज्यादातर किसान मुश्किलों में घिरे हैं. वो दावा करते हैं, “कई बार तो लागत भी ना निकलै. कभी ओला तो कभी बारिश माहौल बिगाड़ दे.” कभी लागत के बराबर फसल का मूल्य नहीं पाता और कभी प्राकृतिक आपदा संकट की वजह बन जाती है. उनके पूरे गांव में किसी को फसल बीमा के बारे में कोई जानकारी ही नहीं है. एक बार सुना था. कहीं एक रुपये बीमा मिला था, कहीं डेढ़ रुपये मिल रहे हैं तो उससे फायदा क्या है?”
करीब सौ किलोमीटर दूर मथुरा की मांट तहसील के अल्हेपुर गांव में किसानों के कुछ परिवार खेतों से आलू निकालने में जुटे हैं. पुरुष, महिलाएं और बच्चे सभी खेतों से निकले आलू के करीब बैठे हैं और आलू साफ करके उन्हें बोरियों में डाल रहे हैं. जहां तक निगाह जाती है, हर खेत में लगभग ऐसा ही दृश्य दिखाई देता है. करीब दो महीने पहले इस इलाके के किसान खेतों और सड़कों पर आलू फेंकने की वजह से चर्चा में थे लेकिन अब हालात थोड़े बदले से हैं. नई फसल नई उम्मीद के साथ आई है. कोल्ड स्टोरेज में रखने के लिए आलू के बोरे पैक करने में लगे किसान अर्जुन सिंह कहते हैं कि आलू का भाव अच्छा चल रहा है. ऐसा लग रहा है कि सरकार किसानों के पक्ष में होने जा रही है. ऐसी स्थिति रही तो दो साल में किसान चंगा हो जाएगा. लेकिन हर किसान अर्जुन सिंह की तरह उत्साहित नहीं है. पास के खेत में मौजूद किसान वृंदावन को दो बातें लगातार परेशान कर रही हैं. पहली ये कि उत्तर प्रदेश सरकार की ऋण माफी योजना में दूसरे किसानों की तरह उनका कर्ज़ माफ नहीं हुआ. दूसरा बीए तक पढ़ाई करने के बाद भी उनका बेटा जितेंद्र बेरोजगार है. वो मायूसी से कहते हैं कि हमारो कर्जा तो माफ भी न भयो. 60-70 हज़ार कौ कर्ज़ा है. जितेंद्र की नौकरी के सवाल पर वो कहते हैं, “पांच लाख कहां से आएंगे जो दे दें. पांच लाख में एक बीघे खेत बिक जाएगो.” उनका आरोप है कि बिना पैसे दिए सरकारी नौकरी पाना मुश्किल है.
अर्जुन सिंह भी उनकी बात का समर्थन करते हैं. वो दावा करते हैं कि इस इलाके के किसानों और उनके परिवार के सदस्यों के पास खेती के अलावा और कोई रास्ता नहीं है. “हम और कुछ कर नहीं सकते सिवाए खेती के. औरतें और कहां काम करेंगी. हम कहीं बाहर मेहनत करेंगे तो खेत में कुछ नहीं होगा. खेत में करते हैं तो घाटा जाता है.”
घाटे और कर्ज़ की चोट की आवाज़ ज़िले से दूसरे छोर पर बसे अड़ींग कस्बे में भी सुनाई देती है. खेत यहां भी लहलहाते दिखते हैं. गेंहू की फसल खड़ी है. लेकिन किसानों से बात करें तो उनके चेहरे पर हवाईयां उड़ती दिखती हैं. उत्तर प्रदेश सरकार की कर्ज़ माफी योजना के बाद चर्चित हुए किसान छिद्दी यहीं रहते हैं. उनके खेत भी यहीं हैं. मुलाक़ात होने पर वो प्रशासन की ओर से मिला चर्चित प्रमाणपत्र दिखाते हैं जिसमें ‘0.01’ रुपये यानी एक पैसा की धनराशि उनके खाते में क्रेडिट होने की बात कही गई है. छिद्दी का दावा है कि देश के तमाम मीडिया संस्थान उन्हें मिले सर्टिफिकेट पर ख़बर बना चुके हैं लेकिन सरकार या प्रशासन ने अब तक उनकी सुध नहीं ली है. वो कहते हैं, “एक पैसा माफ किया है. सरकार ने या तो मेरे साथ कोई खिलवाड़ किया है. या मजाक किया है.” पांच बीघे खेत के मालिक छिद्दी ने साल 2011 में एक लाख रुपये से कुछ ज्यादा रकम का कर्ज़ लिया था. उनका दावा है कि खेती में लगातार घाटा होने की वजह से परिवार के गुजारे के लिए उन्हें मजदूरी करनी पड़ रही है. छिद्दी के बेटे बनवारी एक पैसे की ऋण माफी को लेकर कहते हैं, “कोई इसमें सरकार की कमी बताता है. कोई बैंकों की कमी बताता है. डीएम साहब के यहां गए थे. वहां आश्वासन तो मिला लेकिन कोई रकम नहीं मिली. ”
अड़ींग तहसील गोवर्धन में आता है. गोवर्धन तहसील में कर्ज़ माफी न होने की शिकायत करने वाले किसानों की बड़ी संख्या है. हर किसान खेती में घाटा होने का शिकवा भी करता है. युवा किसान रघुवीर कहते हैं, “दस दिन पहले आंधी तूफान आया था मेरे खेत के सारे गेहूं गिरे हुए हैं. वक़्त पर ब्याज़ चुकाते रहने की वजह से मेरा कर्ज़ भी माफ नहीं हुआ.” कई अन्य किसानों ने दावा किया कि जो किसान वक्त पर कर्ज़ चुका रहे थे उन्हें सरकार की ऋण माफी योजना का फायदा नहीं मिल सका. एक और किसान बिरजन का दावा है कि उनके बैंक ने कर्ज़ लेने की तारीख फरवरी 2016 की जगह अप्रैल 2017 दर्ज़ कर दी इससे उन्हें ऋण माफी योजना का लाभ नहीं मिल सका. ज्यादातर किसान कर्ज़ माफी को लेकर ही शिकायत क्यों कर रहे हैं, इस सवाल पर कृषि मामलों पर रिपोर्टिंग करने वाले पत्रकार दिलीप कुमार यादव कहते हैं कि फिलहाल किसानों की आमदनी इतनी कम है कि वो कर्ज़ के जाल में फंस से गए हैं और जिन किसानों को सरकार की माफी योजना का फायदा नहीं मिला उनकी मायूसी बढ़ गई है.
किसानों की आय के सवाल पर दिलीप कहते हैं, ” मैंने एक दिन हिसाब लगाया. एक बीघा यानी तीन हज़ार स्क्वैयर मीटर ज़मीन में गेंहू की फसल पर साढ़े आठ हज़ार रुपये की लागत आती है और इसमें अधिकतम गेंहू होता है 25 मन. 14 सौ रुपये क्विंटल के हिसाब से कीमत कितनी हुई 14 या 15 हज़ार? फसल तैयार करने में पांच महीने लगते हैं. ऐसे में एक किसान एक बीघे से प्रति माह एक हज़ार रुपये कमाता है.” मथुरा तहसील के किसान नवाब सिंह भी दिलीप यादव के दावे की पुष्टि करते हैं. वो कहते हैं, “मैंने एक ब्योरा निकाला था कि खेती से मुझे बचता क्या है. मेरे पास लगभग 23 -24 एकड़ ज़मीन है. मैं गेहूं और धान की खेती करता हूं. बीते साल मुझे एक लाख 85 हज़ार के करीब नेट प्रॉफिट मिला. इतनी ज़मीन लिए आदमी बैठा है, उसकी मार्केट वैल्यू देखिए और देखिए कि क्या मिल रहा है जबकि मैं बड़ा किसान हूं, तब ये स्थिति है. ”
नवाब सिंह हरियाणा के एक डिग्री कॉलेज में फिजिक्स के प्रोफसर रह चुके हैं. रिटायरमेंट के बाद वो खेती करने के साथ किसानों की बेहतरी के लिए भी काम करते हैं. किसानों की दशा बेहतर करने के सवाल पर वो कहते हैं कि सिंचाई और ख़रीद की सही व्यवस्था होने तक किसानों की स्थिति में सुधार नहीं आ सकता है. वो कहते हैं, “किसान बंपर फसल तो उगा लेता है लेकिन जब उसकी मार्केटिंग करने जाता है तब उसकी हवा निकल जाती है. वहां लुटेरे खड़े हो जाते हैं. मंडी में किसान से लूट होती है. दो बार तो मैं हाइवे जाम कर चुका हूं इस मुद्दे पर लेकिन कोई फर्क नहीं पड़ता है.” दिलीप यादव इसे सरकार की नीतियों की कमी बताते हैं और दावा करते हैं कि जानकारी होने पर भी इस स्थिति को सुधारने के लिए कोई पहल नहीं की जा रही है. वो सवाल करते हैं, ” (प्रधानमंत्री नरेंद्र) मोदी जी पूरे विश्व में घूम रहे हैं. आज आप ऐसा सेटअप क्यों नहीं खड़ा कर सकते कि सारी खरीद पर सरकार का होल्ड हो. जिस व्यापारी को चाहिए वो सरकार से ले. निजी कंपनियां किसान का गेंहू 14 रुपये में खरीद कर तीस रुपये में बेच रही हैं. सरकार ऐसा क्यों नहीं कर सकती जिसके पास पूरा तंत्र है. इसका मतलब है कि सरकार ने व्यापारियों को लूटने का लाइसेंस दे रखा है. ” लेकिन, पास खड़े किसानों की दिलचस्पी खरीद की दशा सुधारने से ज्यादा इस सवाल में है कि वो सरकार तक ये बात कैसे पहुंचा सकते हैं कि मानक पर खरे उतरने के बाद भी उनका कर्ज़ माफ नहीं हुआ है.