घटती छात्र संख्या और पलायन के कारण उत्तराखंड के लगभग 700 सराकारी स्कूलों पर ताले लटकने वाले हैं। उधर, राज्य के शिक्षा मंत्री ने प्रदेश के लगभग डेढ़ हजार स्कूलों को विलय करने का फरमान जारी किया है। प्रदेश के सरकारी स्कूलों में बोर्ड परीक्षाएं शुरू हो गई हैं। परीक्षा शुरू होने से पहले प्रधानमंत्री मोदी की तर्ज पर प्रदेश के शिक्षा मंत्री अरविंद पांडे ने भी बच्चों के साथ परीक्षा पर चर्चा की। बोर्ड परीक्षा में शामिल हो रहे छात्र-छात्राओं के लिए ऐसी चर्चाएं एक सकारात्मक पहल है।
एक ओर जहां प्रदेश में शिक्षा का ये हाल है, शराब सस्ती हो रही है, ठेकों लाइसेंस तीन-तीन साल के लिए सुहाने बोल में सुनाए जा रहे हैं, वही राजनीति अपनी राह जा रही है। गैरसैंण को ग्रीष्मकालीन राजधानी बनाने की घोषणा होने के बाद से चारों तरफ उत्साह का माहौल है लेकिन आम जनता के मन में यह डर अभी बाकी है कि, कहीं ये केवल राजनीतिक घोषणा तो नहीं। डर होना लाजिमी भी है क्योंकि राजनीति चमकाने के लिए अक्सर सरकारें घोषणाएं कर उन्हें भूल जाती हैं। सरकार ने ग्रीष्मकालीन राजधानी की घोषणा कर इसका श्रेय तो ले लिया साथ ही बड़ी जिम्मेदारी भी उठा ली है।
इस जिम्मेदारी को पूरा करना सरकार के लिए सबसे बड़ी चुनौती होगी। दूसरी ओर सबसे बड़ा सवाल ये कि, गैरसैंण में केवल चार-छह दिन का विधानसभा सत्र चलेगा या पूरी गर्मियों के महीने मंत्री व अधिकारी वहां पर रह कर काम करेंगे। मूलभूत सुविधाओं का टोटा झेल रहे गैरसैंण में नेता और अधिकारी वर्ग अगर टिक कर काम लें तो पहाड़ का विकास होना तो तय है। अब देखना होगा कौन अपनी जिम्मेदारी कितनी निभा पाता है।
प्रदेश में अब दो राजधानियां होंगी। दो राजधानियों का मॉडल उत्तराखंड में कितना कारगर साबित होगा ये बड़ा सवाल है। गैरसैंण, देहरादून जितना सुलभ तो किसी के लिए नहीं है। न पलायन रोकने के नाम पर वोट बटोरने वाले नेताओं के लिए न ही अधिकारियों के लिए। गैरसैंण जैसे दूरस्थ क्षेत्र को बतौर राजधानी विकसित करने में नए सिरे से भारी खर्चा करना होगा।
साथ ही दूसरी राजधानी को चलाने के लिए भी सरकार को अलग से खर्चा करना पड़ेगा। इन सभी बातों को ध्यान में रखते हुए मुख्यमंत्री ने गैरसैंण को ग्रीष्मकालीन राजधानी की घोषणा कर सभी चुनौतियां स्वीकार ली हैं। पड़ोसी राज्य हिमाचल प्रदेश धर्मशाला को दूसरी राजधानी बना कर यह प्रयोग कर चुका है। ऐसे में एक बार दोबारा दोनों राज्यों के बीच नए सिरे से तुलना शुरू हो जाएगी। अब देखना होगा कि उत्तराखंड सरकार इस मॉडल पर खुद को कितना कारगार साबित कर पाती है।